स्वतन्त्रता दिवस !73 वर्षीय स्वतन्त्रता हमे कितना परिपक्व बना पायी

स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष :

कल सबने फिर अपनी देश भक्ति का परिचय और सामाजिक कर्तव्य निभाते हुए अपने मित्रों और संबंधियों को स्वतन्त्रता दिवस की बधाई दी । एक स्वतन्त्र देश जो लगभग 200 वर्षों की गुलामी से बाहर आया था उसस्के लिए वास्तव मे यह बड़े गर्व का पर्व है । हममे से अधिकांश को अपने भारतीय होने पर गर्व है । पारन्तु आज अपने आप से एक प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि हमारे पूर्वजों ने जो आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, उस समय जो उनकी परिस्थिति थी और जो उनको सही लगा उन्होने किया । हो सकता है कि आप आज बहुत सी महात्मा गांधी की अथवा पंडित नेहरू या चंद्र शेखर आज़ाद की नीतियों को गलत समझते हो, परंतु न तो आप उस समय थे और न उस समय की परिस्थिति का आप आज अनुभव कर सकते हैं । आज हम मात्र उनकी नीतियों का पोस्ट मार्टम कर सकते हैं । परंतु क्या आज हम तथाकथित बुद्धिजीवी स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के अधिकारी हैं ??

कदाचित आपको लग सकता है कि कठोर शब्दों का प्रयोग किया गया है । हमारी सरकारों से अपेक्षा है कि सरकार हमें मूलभूत सुविधाएं प्रदान करे । हमारे परिवार को सुरक्षा, हमारे बच्चों को शिक्षा, हमे स्वास्थ्य सुविधा और रोजगार दिलवाए । हमारी रोटी कपड़े और मकान की व्यवस्था करवाए ।  हमे महंगाई से बचाए । परंतु हम न तो अधिक कर दें। और न ही हम सरकार की किसी प्रकार मदद करें । अब आप स्वयं सोचिए क्या यह संभव है ? हमारी देशभक्ति क्या स्वतत्रता दिवस और गणतन्त्र पर एक दूसरे को बधाई और संदेश देने तक सीमित है ? वह महत्वापूर्ण अथवा अवकाश का दिन समाप्त हुआ और हम सब अपनी अपनी दिनचर्या मे व्यस्त हो जाते हैं । और उस दिन भर के कार्यों को करते हुए हम अपने को शायद देश का एक नागरिक भी नहीं समझते ।

आइये तनिक विस्तार से समझें, सरकार से अपेक्षा है कि पूरे देश मे स्वच्छता अभियान चलाये । अब रही बात स्वयं की तो मैंने स्वयं के घर का कचरा घर से बाहर कर दिया, फिर भले ही सड़क पर गिराया या  दूसरे के घर के सामने या अंदर । मेरा घर स्वच्छ हो गया, और मेरे कर्तव्य की इतिश्री हो गयी । इतना तो मैं पहले भी अपने घर को स्वच्छ रखता था । क्या मैं पहले स्वछता का ध्यान नहीं रखता था ? मुझे लगता है कि मैं तो  स्वच्छता मे पहले भी रहता था और आज भी । क्या अन्तर है ? कुछ भी तो नहीं । और ऐसे कार्य मेरे जैसे बुद्धिजीवी ही करते है । बस में सफर मे जाते हुए अपनी सीट का कचरा नीचे गिरा गिया, चाहे पीछे वाले के पैर पर गिरे या बीच कि संकरी पटरी पर या चाहे सड़क पर । इसी अहंकार में कि मेरी सीट का मैंने पैसा दिया है तो मुझे साफ सीट पर बैठने का अधिकार है । रेल यात्रा में भी मैंने ऐसे ही किया अपनी सीट का कचरा डिब्बे मे गिरा दिया या फिर बाहर गिरा दिया । अब आप तनिक पिछले वर्षों में बुद्धिजीवियों के आई तथाकथिक उन्नति के कारण, हमारी रेल सेवा अधिक और अधिक वातानुकूलित होती  गयी । इसी प्रकार सड़क यात्रा की बसें और बेहतर यहाँ तक की वातानुकूलित बसें चलने लगी । अब तो बड़े बड़े शहरों  की स्थानीय बसें भी वातानुकूलित हो गयी । इसी वातानुकूलित यातायात व्यवस्था से कचरा बाहर नहीं गिराया जा सकता । अत: अब कचरा अपनी सीट से हटा कर नीचे गिराने की परंपरा बढ़ती जा रही है । क्या हम स्वच्छ जीवन यापन कर रहे हैं । मात्र सरकार या सरकारी विभाग को दोष देते रहते हैं । इसी प्रकार अपनी कार से आइसक्रीम या चॉक्लेट इत्यादि खा कर उसके आवरण को सड़क पर गिरा  देता है और अपनी नयी पीढ़ी को भी यही सिखाते है कि तुम्हारी लाखों की कार है कचरा बाहर रखो । कितने लोग ऐसे हैं जो अपनी अपनी कर या बस  में सफर के दौरान कचरे के लिए एक अलग से लिफाफा रखते हैं, जिसे उपयुक्त स्थान पर डाल दें ।

हम सरकार से प्रदूषण नियंत्रण के लिए अपेक्षा रखते हैं । समस्त बुद्धिजीवी वर्ग जानता है कि प्लास्टिक प्रयोग प्रदूषण के लिए खतरा बंता जा रहा है और हमारे घरों में बढ़ती बीमारी के लिए भी यह प्रदूषण उत्तरदाई है । हमारे घर में कोई भी पार्टी हो तो बिना संकोच थर्मोकोल के बर्तनों का प्रयोग करते हैं । यह समझते हुए कि यह प्रदूषण को बढ़ावा देगा । यहाँ तक कि अपने बच्चे की पाठशाला में थर्मोकोल के प्रोजेक्ट बनवाने पर भी उसका विरोध नहीं करते हैं । चाय की चुस्की लेते हुए यही बात करेंगे सरकार को चाहिए कि थर्मोकोल और प्लास्टिक बंद करवाए । पर मेरे घर में प्लास्टिक की बाल्टी, किचन मे दाल, चीनी कें डब्बे का भरपूर उपयोग ही नहीं होगा, वरन नए भी वही खरीदेंगे । रोज़ की सब्जी भाजी लाने के लिए घर से थैला लाने को शायद मैं मानसिक स्वरूप से स्वीकार ही नहीं करता । हाँ मुझे यदि मेरे बच्चे को प्लास्टिक के प्रदूषण पर निबंध लिखा हो तो मेरे पास सभी आंकड़े तैयार मिलते हैं ?

जब देश स्वतंत्र हुआ ततो इसका अर्थ हमने समझा ही नहीं । स्वतंत्र का सीधा सा अर्थ है, अपना तंत्र जिसे हमने चलाना था । उस तंत्र को चलाने के नाम पर हम मात्र 5 वर्ष मे मतदान करके यही चाहते हैं कि सब कुछ अब चुना हुआ उम्मीदवार करे । यह कहाँ तक उपयुक्त हैं ? स्वयं सोचे और विचार करें कि देश की बढ़ोत्तरी मे मेरा योगदान क्या है ??

अगले अंक मे आगे …..

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