महाशिवरात्रि का कथा विज्ञान
फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इसे मनाने के पीछे आपको कई कथाएँ मिल जाएंगी । स्कन्द पुराण में इसका वर्णन भी है । कश्मीर शैव मत में इस त्यौहार को हर-रात्रि और बोलचाल में ‘हेराथ’ या ‘हेरथ’ भी जाता है । पहले तो यह समझ लें की स्कन्द इत्यादि पुराणों की रचना इसी कलयुग में लगभग महाभारत काल के बाद ही हुई है । पुराण शब्द को आप पुराना भी समझ सकते हैं । पहले कहा जाता है कि यह मौखिक रूप से ही या स्मृति से ही चला आ आया फिर इसे 2000 वर्ष पहले लिखित रूप में सामने लाया गया । ऐसी मान्यता है । आइये उन्हे समझें
महा शिवरात्रि के लिए भी कुछ कथाएँ प्रचलित हैं । सबसे प्रमुख तो है कि इस दिन भगवान शिव का विवाह पार्वती देवी से हुआ था । इसीलिए इस दिन कुछ लोग भगवान शिव की बारात के रूप में भी साथ मिल कर एक यात्रा निकाल लेते हैं । आपको गाना तो याद ही होगा “शिव जी बिहाने चले पालकी सजाये के” । इसी प्रकार से बारात ले कर शिव पार्वती के विवाह के रूप में लोग नृत्य नाटिका भी प्रस्तुत करते हैं ।
दूसरी कथा इसकी समुद्र मंथन से जुड़ी है । जिस समय देवताओं और दानवों नें समुद्र मंथन किया तो उसमें से कालकूट नमक विष उत्पन्न हुआ। यह विष बहुत जहरीला था था यदि यह धरती पर गिर जाता तो मानवों के लिए बहुत कठिनाई होने वाली थी । इसलिए उस समय विष को भगवान शिव ने पीआईआई लिया और कंठ मे सुरक्शित रख लिया जिसके कारण उन्हे नीलकंठ भी कहा जाता है ।
तीसरी कथा एक शिकारी के विषय में है जो की एक रात को थक कर जंगल में भूखे प्यासे अटक गया । उसने रात भर पेड़ से पट्टी तोड़ तोड़ कर समय बिताया । सारी की सारी पत्तियाँ बेबल वृक्ष की थी क्योंकि वह उसी के नीचे बैठा था । वही पर नीचे शिवलिंग भी था । शिव जी उस पर प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद दिया तभी से बेल का फल शिवरात्री में चढ़ाने की प्रथा चल गयी ।
यह भी माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। अधिक तर लोग यह मान्यता रखते है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवि पार्वति के साथ हुआ था। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
एक कथा ब्रह्मा और विष्णु की भी है की जब दोनों को अहंकार हुआ एक दूसरे से बड़ा है । दोनों में इस पर ही युद्ध होने की स्थिति आ गयी तो भगवाव शिव नें बीच में एक विराल अग्नि का रूप धरण किया और इस अग्नि के अंत्म स्थान की खोज के लिए ब्रह्मा और विष्णु ने अलग अलग राह पकड़ी । विष्णु ने वराह का रूप लीया और धरती के नीचे चले गए । जब उन्हे बहुत आगे जाने पर भी कुछ नहीं मिला वह वापिस आ गए और यह कहने लगे की इस का विकराल रूप का आंकलन मेरी क्षमता से बाहर है । वहीं ब्रह्मा नें वामन अवतार मे हंस का रूप लिया और ऊपर की ओर चले वहाँ पर उनके केतकी का पुष्प मिला । केतकी से ब्रह्मा ने प्रश्न किया कि तुम यहाँ कैसे ? केतकी ने उत्तर दिया कि मुझे इस अग्नि के ऊपर अर्पण किया गया है और मेरा आगमन वहीं से है । ब्रह्मा ने केतकी के पुष्प को लिया और उसे एक प्रमाण के रूप में बाटाया कि मैं ऊपर तक हो आया हूँ । यह सुनते ही अगनी रूपी शिव भगवान अपने वास्तविक रूप में आ गए और ब्रह्मा पर बहुत क्रोधित हुए । उन्हे यह भी कहा ही आपको कोई नाही पूजेगा क्योंकि आपके असत्य का सहारा लिया और इसी लिए केतकी के पुष्प को भी किसी प्रकार के पूजा में अर्पण नहीं किया जाएगा ।
शिवरात्रि का शारीरिक विज्ञान
यह तो थी आपके लिए कुछ कथाएँ । परंतु यह समझें कि भारत देश में हर धार्मिक क्रिया के पीछे कुछ न कुछ विज्ञान था । आज शायद वह शायद अपभ्रंश रूप में भी आपके सामने आता है । धर्म की अधिकांश घटनाए आपको बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं । उस कर्म को समझनी के लिए धार्मिक पुट दे दिया जाये तो शायद हम बेहतर समझ लेते हैं । इसे शारीरिक ज्ञान से समझें । यह समय शीत काल से वसंत से होते हुए ग्रीष्म काल की ओर जाता हुआ है । वात पित्त और कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। इन तीनों को धातु भी कहा जाता है। धातु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको ‘दोष’ कहते हैं।
आयुर्वेद साहित्य शरीर के निर्माण में दोष, धातु मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि दोष धातु मल मूलं ही शरीरम्। आयुर्वेद का प्रयोजन शरीर में स्थित इन दोष, धातु एवं मलों को साम्य अवस्था में रखना जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहे एवं दोष धातु मलों की असमान्य अवस्था होने पर उत्पन्न विकृति या रोग की चिकित्सा करना है। इस समय आप शीत यानि कफ प्रधान से वात प्रधान ऋतु में प्रवेश करते हैं । एक प्रधान ऋतु में आप उस ऋतु के अनुकूल भोजन करते है और दूसरी में दूसरी के अनुकूल । इसीलिए आप शरीर को एक प्रकार के भोजन से दूसरे में जाने से पहले साफ करते हैं और शारीरिक आंतरिक शुद्धि के लिए उपवास से बेहतर कुछ नहीं है इसलिए इस समय उपवास रख करके आप नई ऋतु के लिए शरीर तैयार करते हैं ।
शिव का अर्थ
अब आइये शिव का अर्थ समझते हैं । शिव का अर्थ है कल्याणकरक या मंगल कारणे वाला । उन्होने एक समय में स्वयं विष का पान करके संसार को बचाया था । इस से आप समझ सकते हैं कि परोपकार की भावना का परिचय मिलता है । अर्थात स्वयं कष्ट सह कर भी लोगों या समाज को सुखी करना शिव के विष पान से शिक्षा देता है । उनके माथे पर चंद्रमा और गंगा इस बात का संकेत है कि व्यक्ति का मस्तक शीतल रहना चाहिए । यहाँ शीतल का अर्थ तापमान से न होकर सही विवेक से है । यदि आप क्रोध में है तो बहुधा त्रुटिपूर्ण निर्णय कर लेते हैं । शिव का यह रूप हमें उस विवेक की याद दिलाता है । इसके साथ ही शिव का वहाँ बैल, पार्वती का वहां सिंह, शिव का कंठहार सर्प इत्यादि स्साब एक दूसरे के विरोधी है परन्तु शिव के सामने सब समान रूप से एक साथ विराजमान है । इसलिए इसकी शिक्षा की अनुरूप विभिन्न विरोधी प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति इस समाज में साथ साथ रहें । आज इस गुण की सबसे अधिक आवश्यकता है । समाज में परस्पर विरोधी स्वभाव के व्यक्ति आपस में मिल जुल कर रहें । परन्तु दुर्भाग्य से हम न तो इसके आध्यात्मिक अर्थ को समझते है और न ही सामाजिक अर्थ को !