क्या हम सच्चे अर्थों में पदक विजेताओं को बधाई देने के पात्र हैं । समाज कब इसका महत्व समझेगा ?

आज भारत देश में कुछ ओलंपिक के मेडल मिले हैं, कुछ जगहों पर असफलता भी रही है लेकिन जैसे ही मेडल आए हैं पूरे देश के बधाई के संदेश आ रहे हैं। यह देखकर अच्छा लग रहा है कि भारतीय अपने खिलाड़ियों के लिए बढ़-चढ़कर उत्साहवर्धन कर  रहे हैं। परंतु एक प्रश्न बार-बार उठता है, और वह यह  कि मात्र ओलंपिक के आसपास ही पूरा देश, हमारी टीवी चैनल, हमारी अखबार इस ओलंपिक के खेलों के बारे में बहुत बड़े-बड़े दावे इत्यादि पेश करते हैं। एक सच्चे भारतीय होने के नाते हम शायद इन बधाई के संदेशों पर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं ।  खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन अच्छी बात है परंतु हमें अपने आप से यह प्रश्न पूछना चाहिए उनके इस स्थिति पहुंचने में हमारा क्या योगदान है?

उसके बाद प्रश्न आ जाएगा कि  सरकार ने अनुदान कम किया ज्यादा किया, अधिक सुविधाएं देनी चाहिए थी इत्यादि इत्यादि। परंतु जो प्रश्न उठता है इन खेलों को टीवी पर देखने के बाद या अखबारों में पढ़ने के बाद क्या हम अपने पुत्रों को पुत्रियों खेल के क्षेत्र में भेजना चाहते हैं? यह प्रश्न अगर आप ईमानदारी से अपने आपसे पूछेंगे तो आपको इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा । खिलाड़ियों के जीवन में अथक प्रयास, उनका अभ्यास भी बहुत अधिक होना चाहिए । इसके साथ ही शारीरिक श्रम के लिए उन्हें बहुत काम करना पड़ता है इसके लिए भोजन की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इस दिशा में समाज ने कितना काम किया, आप एक पल के लिए भूल जाएं कि सरकारी क्या करती है और यह जानने का प्रयास करें कि हमने क्या किया?

सरकारों पर  दोषारोपण करना सबसे सरल काम है, पर जब सरकार ने खिलाड़ियों के लिए समुचित खेल व्यवस्था अनुदान नहीं की, तो हमने एकमात्र बात कही कि सरकार अनुदान कम कर रही है अथवा धन नहीं दे रही हमने कब यह कहा कि हमारी सुविधा को हटा करके हमारे लिए सरकार का उपयोग ना करके उसी धन को खिलाड़ियों के लिए दें? यह  हमने कभी नहीं कहा। खिलाड़ियों की जिम्मेवारी उसके परिवार तक सीमित है, लेकिन यहां पर भी समाजसेवी परिवार को अथवा उस बच्चे को उस खिलाड़ी को बहुत अधिक सम्मान नहीं दिया । हर घर की यही कहानी है, कुछ पढ़ लो कुछ बन जाओ, खेल शारीरिक श्रम के लिए ठीक है पर पैसे कहां से कब आओगे? क्या यह कहना उचित नहीं है कि हम अपने समाज में आज भी खेल को यथोचित  सन्मान नहीं दे पाए ।

इसके साथ ही यह भी ध्यान रखें कि जो व्यक्ति राष्ट्रीय स्तर पर कोई मेडल इत्यादि ले आया, उसका शायद आपने नाम सुन लिया। परंतु ऐसे हजारों खिलाड़ी जो प्रादेशिक स्तर पर खेलते हैं, अथवा जिले के स्तर पर खेलते हैं उनको कहीं पर कोई भी याद नहीं रखता। और अंत में उनके लिए रोजी रोटी के लिए एक खिलाड़ी कभी किसी विद्यालय का शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बन जाएगा, कोई किसी खेल का प्रशिक्षक बन जाएगा अथवा कोई किस खेल की समीक्षा करने लग जाएगा और कभी कभी तो खेल पत्रकार बन जाएगा । परंतु राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे खिलाड़ियों को रोजी रोटी

के लिए अपने क्षेत्र से बाहर काम करना पड़ता है ।

आप एक बात पर आप और ध्यान दें वर्षभर सभी टीवी चैनल और अखबार क्रिकेट के बारे में बात करते रहेंगे,  हॉकी फुटबॉल दौड़ प्रतियोगिता या अन्य खेल और उनके बढ़ने पर लोगों पर विचार गोष्ठियों कहीं  नहीं होगी। अंत में यह पता लगा क्या आप क्या खेलों को महत्व देते ही नहीं पूरे खेल विद्यार्थी के जीवन में मात्र मात्र  विद्यालय में शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम तक सीमित है। यह जानते  हुए के विभिन्न खेल कुछ शारीरिक शिक्षा का मात्र एक अंग है हम उस अंग विशेष को जो खिलाड़ियों को ऊपर ले जा सकता है और भविष्य में मेडल इत्यादि या अपना नाम करवा सकता है, उस पर हमारे विद्यालयों में भी कोई काम नहीं होता । एक चित्रपट बन जाएगा चक दे इंडिया उसका गौरव हमारे खिलाड़ियों से जाएगा और लोग उसके अभिनेता को अधिक देखेंगे बजाय कुछ अपना योगदान खिलाड़ियों को करने के लिए।

आप और देखें भारत की महिला मुक्केबाज हुई मैरी कॉम, बहुत नाम हुआ बहुत पदक लेकर आई इतनी चर्चित हुई उनके ऊपर एक चित्रपट बन गया। इस देश में मैरी कॉम पर बने चित्रपट पूरे जीवन में कितना मान सम्मान धन मेरी कॉम को दिया उससे कहीं अधिक उस चित्रपट के कलाकारों को मान सम्मान और धन मिला। अब आप कल्पना करें ऐसे परिवेश में हम यह चाहते हैं, कि हम राष्ट्र भक्त होने के लिए मात्र प्ले पर बधाई दें और अपने कर्मों की इतिश्री कर ले ।

अभी का एक संदेश social media पर घूम रहा है :

कृतज्ञता का सवर्णपदक…!

मीराबाई चानू केवल ऑलिम्पिक का रजतपदक नहीं, इसने यह तो नम्रता तथा कृतज्ञता का “स्वर्णपदक” ही जीता है…! टोकियो से लौटकर अपने गाँव पहुँचते ही मीराबाई ने उसके गाँव के आसपास से राज्य की राजधानी इम्फाल तक नदी की बालू ढोनेवाले ट्रकों के ड्राइवरों एवं उनके सहायकों को ढूँढ़ निकाला….

हुआ यूँ कि मीराबाई का गाँव “नांगपॉक काकचिंग” इम्फाल में स्थित “खुमान लाम्पाक” क्रीडा संकुल से लगभग ३० किमी दूर है और भारोत्तोलन के प्रशिक्षण के लिये प्रतिदिन इतनी दूर बस से जाने का खर्च करना मीराबाई के परिवार के लिये सम्भव नहीं था….! तब उसने उस मार्ग पर प्रतिदिन बालू ढुलाई करनेवाले ट्रकचालकों से परिचय बढाया… ग्रामीण भारतीयों में बसी अपनत्व एवं सहयोग की भावना ऐसी कि उस मार्ग पर चलनेवाला जो कोई ट्रक मीराबाई के चलने के समय उपलब्ध होता था, वह उसे इम्फाल पहुँचा देता… और यह क्रम लगातार लगभग छ: वर्षों तक चला…!

उन सब के प्रति मीराबाई के मन में कृतज्ञता का भाव ऐसा कि उसने टोकियो से लौटते ही उन ट्रकवालों को खोज कर ड्राइवर तथा उनके सहायक मिला कर लगभग १५० लोगों को सम्मानपूर्वक अपने घर बुला कर सब को एकेक शर्ट का कपड़ा तथा उत्तरीय (मणिपुरी गमछा) भेट किया और उनमें से वयस्कों के पैर नि:संकोच छू कर उनका आशीर्वाद ग्रहण किया…!

एक ओर यह भी दृश्य था कि लौट कर इम्फाल पहुँचते ही मणिपुर के मुख्यमन्त्री ने स्वयं मीराबाई को नवनियुक्त “अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक” की कुर्सी पर सम्मानपूर्वक बिठाया था…. तो दूसरी तरफ वही ऑलिम्पिकविजेता मीराबाई चानू बालू ढोनेवाले ट्रकचालकों को पैर छू कर प्रणाम कर रही थी…!

दिल जीत लिया इस मीराबाई ने…!

इस पूरी प्रक्रिया में धन्यवाद उन वहाँ चालकों का और उससे बड़ा मीराबाई का कि उस उपकार को नहीं भूली । पर यहाँ वही प्रश्न है कि यह खेल को जो सन्मान उन वहाँ चालकों ने दिया वह भारत का समाज क्यूँ नहीं करता । आज हमारे आसपास किसी विद्यार्थी को परीक्षा देने जाना हो तो, तो पड़ोसी मदद के लिए आय जाते हैं । क्यूंकि इनकी नजर में शैक्षिक योग्यता का महत्व है ।

अब आज स्वर्ण पदक विजेता को आप करोड़ों का इनाम दे रहे है । बहुत अच्छी बात है पर यह काम प्रदेश सरकारें और उनमे भी, जिस प्रदेश में खिलाड़ी खेलने भी नहीं गया, क्यूँ करेंगी ? यह एक राष्टरित नीति के अनुसार हो । इसके अतिरिक्त जिन्हे पदक नहीं मिले, परंतु इस ओलिम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व कर रहे है और किसी कारणवश पदक नहीं ले पाए, उनको तो कोई याद भी नहीं करेगा । ऐसा क्यूँ , सरकार और समाज को इस पर भी सोचना चाहिए । नहीं तो भविष्य में आपके पदक कैसे बढ़ेंगे ? बहुत अच्छी बात है कि सेना ने एक कार्यक्रम के अनुसार कुछ खिलाड़ियों को चुना और प्रशिक्षित किया । ऐसा ही काम अधिक विभागों में भी होना चाहिए । जब ऐसी मांग समाज करेगा तब वह समय होगा कि समाज सभी पदक विजेताओं को बधाई और जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उनका सच्चे अर्थों में सन्मान सीखेगा

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