आपकी स्वतंत्रता या आजादी कितनी आपकी है और कितनी परतंत्रता है ? यह समझना आवश्यक है

स्वतंत्रता कितनी हमारी कितनी विदेशी

सबसे पहला प्रश्न तो यह ही आता है, क्या आपको स्वतंत्र क्यों चाहिए ? या परतंत्र होने में क्या बुराई है ।  यदि हम यह मानते हैं कि विदेशी ताकतों ने हम पर, वर्षों राज्य किया तो आगे भी कर ले उसमें बुराई क्या है?

तब मन में यह उत्तर आता है, कि हम अपनी तंत्र अपनी व्यवस्था के साथ चलना चाहते हैं । अब प्रश्न है कि अपनी व्यवस्था का मतलब क्या होता है  ? आइए थोड़ा इसको समझने का प्रयास करते हैं ।

पहले इंसान जंगलों में रहता था, उसके बाद सभ्यता का विकास हुआ और मनुष्य सभ्य होता चला गया। इसी सभ्यता से मनुष्य के लिए एक समाज की परिकल्पना हुई । और इस समाज की व्यवस्था को बनाने और चलाने काम कुछ व्यक्तियों ने किया। आज भी व्यवस्था का अर्थ सामाजिक कार्यकलापों में एक नियंत्रण देना है। मनुष्य व्यक्तिगत कार्यों में स्वतंत्र होना चाहिए, और सामाजिक कार्यों में परतंत्र । परतंत्र इसके लिए कि वह निरंकुश ना हो जाए । परंतु इस परितंत्रता के कुछ नियम होते हैं जो आपकी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बनाए जाते हैं ।

आजका व्यक्ति क्या, हमेशा से व्यक्ति एक सुखी जीवन चाहता है । आज इस सुख को हम धन का पर्याय मानने लगे हैं  और यहीं से सभी परेशानियाँ जन्म लेती हैं । साथ ही इस सुखी जीवन के लिए एक सभ्य समाज का होना आवश्यक है । जब बच्चा जन्म लेता है, तब शायद वह अपने पूर्व जन्म के संस्कारों को लेकर उत्पन्न होता है परंतु फिर भी धीरे-धीरे बड़े होते होते वह सामाजिक व्यवस्था को समझने लगता है । किसी बच्चे में यही समझ पैदा करने के लिए एक शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी और वह बनाई गई।

अंग्रेजों के शासन में, और शासकों ने एक विशेष प्रकार की है शिक्षा व्यवस्था शुरू की जिससे उनका लाभ हो । यह स्पष्ट है कि यदि अंग्रेजी शासक किसी भी नई व्यवस्था को लागू करते हैं तो उनका कुछ उद्देश्य होगा । अब जब अंग्रेज शासन करते थे तो उन्हें भारत में वह शिक्षित लोग चाहिए थे जो उनकी बात (भाषा) को समझें और उसी संदेश या विचार को आम भारतीय को पहुंचा सकें । परंतु  साथ में यह भी आवश्यक था कि भारतीय शिक्षित समाज उनका विरोध न करें । भारतीय अंग्रेजी शिक्षित व्यक्तियों का  साधारण भारतीयों से ऊंचा मनवाने का काम उन्होंने साथ में किया । इसीलिए वह एक अंग्रेजी माध्यम से एक विशेष पाठ्यक्रम को पढ़ाने का यह काम करते थे । उनकी यही आवश्यकता थी कि भारत के लोगो उनकी बातें समझे और उसी के अनुरूप कार्य करें। जबकि प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में यह नहीं था ।

अगर आप ध्यान दें महाभारत काल में महाराज पांडु और धृतराष्ट्र के पुत्र द्रोणाचार्य के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं, तो अर्जुन को धनुर्धर, और  भीम का गदा युद्ध इत्यादि में पारंगत करने का काम गुरुवर द्रोणाचार्य ने किया ।

अर्थात यह सोचकर के किस विद्यार्थी की क्या क्षमता है गुरुवर ने उसे उसके अनुरूप शिक्षा प्रदान किए, परंतु आज के परिवेश में अंग्रेजों के शासन में क्या शिक्षा देनी है यह शासन तय करता है। और गुरुओं को यह कह दिया जाता है कि आप यही शिक्षा दीजिए । इस के चलते शिक्षा व्यवस्था पूरी उनके अधिकार में रही । पाठ्यक्रम भारी भरकम कर दिया, ऐसा भी शिक्षा में पढ़ाने लगे जिसकी व्यक्ति के जीवन में काभी आवश्यकता न पड़े । शिक्षा विद्यार्थी के लिए बोझिल हो गई, इसके चलते विद्यार्थी जिसका सर्वांगीण विकास होना था वह नहीं हुआ । शिक्षा काल भी बढ़ा दिया गया जिससे जब जब तक विद्यार्थी विद्यालय या महाविद्यालय से शिक्षा करके बाहर आए वह अब तथाकथित सामाजिक बंधन (विवाह इत्यादि) में बंध कर शासक की न तो चाल को समझे और न ही उसका विरोध कर सके ।

 

चलिए पहले तो अंग्रेज थे उनकी शासन व्यवस्था थी, परंतु इस तथाकथित आजादी के बाद क्या हम अपनी शिक्षा में परिवर्तन ला पाए जिससे भारतीय समाज की समृद्धि हो । ऐसा तो नहीं हुआ, समाज में भेदभाव बढ़ता गया जबकि शिक्षा का काम समानता लाना था । तो इससे यह तय होता है कि यह शिक्षा व्यवस्था आपकी नहीं है आपके ऊपर ला दी गई है तथाकथित स्वतंत्रता के मद में ढो रहे हैं ।

 

इसी के साथ बात आती है आप की कृषि व्यवस्था की। भारत एक कृषि प्रधान देश था और आज भी है, इस पर आप विचार कर सकते हैं धीरे-धीरे यहां खेती में कमी आती जा रही है। कोई किसान अपने बच्चे को किसान नहीं बनाना चाह । दूसरी बात खेती का अर्थ प्राथमिक रूप से, आपके भोजन की व्यवस्था करना है। अब हम सब समझ रहे हैं कि हम आजकल कितना रसायन युक्त और विषैला भोजन कर रहे हैं। किसान विषैली और रासायनिक खेती करता है पूरा देश उस विषैले और रासायनिक में भोजन को खाता है। समय-समय पर आपको समाचार पत्रों में मिलता है कि नकली मावा नकली दूध इत्यादि पाए गए हैं, परंतु इस नकली भोज्य पदार्थ जिसके कारण  पूरा देश बीमार होता जा रहा है, इसके लिए किसी भी प्रकार का कृषि नीति में प्रावधान नहीं किया जा रहा, इसके उलट अधिक रासायनिक उर्वरक के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित और किया जाता है । हुआ अब यह कि  आप यह विषैला भोजन खाते चले और दवाइयों पर पैसा खर्च करते चले। दूसरी तरफ किसान का लागत बढ़ने के कारण उसे उपयुक्त दाम नहीं मिलता, बिचौलिये उसका शोषण करते और फलस्वरूप किसान की आत्महत्या कर रहे हैं। न  तो किसान सुखी, न किसान से पैदा हुए अनाज  से  भोजन को खाने वाला सुखी। क्या यही कृषि नीति आप चाहते थे, अधिकांश लोग इसके सहमत नहीं होंगे  परंतु यही सत्य है इसके लिए आप समझ सकते हैं की कृषि नीति भी आपके समाज के लिए नहीं है ।

अब आप बात कर लीजिए स्वास्थ्य नीति की, कम से कम यह तो व्यक्ति का मूलभूत अधिकार होना चाहिए कि वह स्वस्थ जीवन जीना चाहता है, और आज की व्यवस्थाएं उसके लिए स्वस्थ जीवन जीने के रास्ते में बाधक है। इसका सबसे बड़ा कारण, विषैला भोजन है, अब यदि आप  आप बीमार पड़ जाते हैं, पूरे देश में ऐसी चिकित्सा पद्दती का बोलबाला है, जिसमें आपको एक रोग का निदान करते हुए दूसरा रोग प्रदान कर दिया जाता है। जीवन भर आप इन दवाइयों पर निर्भर हो जाते हैं। आज स्वास्थ्य नीति के नाम पर. बड़े चिकित्सालय खोलने की बात होती है, और चिकित्सकों के लिए पुरजोर कोशिश होती है, परंतु हमारी पुरानी प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद इत्यादि से, रोग मुक्त जीवन जी सकते हैं, इस पर कोई विशेष कार्य नहीं होता। मेरे कहने का अर्थ है कोई सरकारी नीती इस पर काम नहीं करती। और यह अभी की तथाकथित महामारी से और भी स्पष्ट हो गया है । अब न तो शिक्षा नीति आपकी रही, न कृषि नीति आपकी रही और ना ही स्वास्थ्य नीति आपकी रही बल्कि यह तीनों चीजें वह है जिससे हर व्यक्ति बीमार   है।

और आइए अंत में अब थोड़ा सा न्याय व्यवस्था को समझ लेती है । आज व्यक्ति को स्वयं न्याय नहीं मिलता उसको न्याय लेने के लिए न्यायालय में जाना पड़ता है, जो कि एक बहुत महंगा सौदा है  । आपको ऐसे बहुत से उदाहरण मिलेंगे जहां न्याय लेने में व्यक्ति को वर्षों लग जाते हैं उस पर हम कहते अवश्य हैं Justice delayed is Justice denied पर  आप इस पर कितना यकीन करते हैं यह आप पर छोड़ सकते हैं । दूसरी बात आपने न्याय के लिए कानून बनाया है, तो न्यायाधीश को कानून की सुननी है और वह कानून के अनुरूप निर्णय देता है । यह न्याय है या नहीं इससे उसका कोई मतलब नहीं है ।

बातचीत की भाषा में नीति की भाषा में, बार-बार यह कहा जाता है संविधान सर्वोपरि है। कभी यह प्रश्न आप अपने आप से पूछिए किस संविधान भारतीय समाज के लिए है यह भारतीय समाज संविधान के लिए है ? बहुधा आप यह पाएंगे कि भारतीय समाज संविधान के लिए है । यह संविधान जो अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट को मूलभूत मानकर चलता है, और आजादी के मात्र 2 वर्षों में कुछ लोगों ने मिलकर इसकी रचना की उसे ही सर्वोपरि बना दिया गया । समय-समय पर इसमें संशोधन भी किए जाते हैं, यह मानकर की इसमें कुछ बदलाव की आवश्यकता है। परंतु आप एक बात और ध्यान दीजिएगा, जो संविधान बनाने के लिए समिति बनाई गई थी, उस समय भी भारत एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद, उस समिति को बनाने वाले अधिकांश अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किए, किसी छात्रवृत्ति द्वारा अंग्रेज विश्वविद्यालय में पड़े हुए और या फिर किसी तथाकथित राजा की मंत्रिमंडल के लोग थे । अब यह मानना कि वह लोग भारत के उसको समझ करके उसके लिए कानूनी प्रक्रिया और व्यवस्था बना देंगे, यह अपने आप में एक धोखा है ।

तो आप समझ सकते हैं शिक्षा कृषि कानून व्यवस्था अवस्था यह सब विदेशियों द्वारा शक्ति स्वतंत्रता के नाम पर दी गई है और दुर्भाग्य से हम इस पर बहुत गर्व करते हैं ।

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