सभी सम्मानित अध्यापकों को समर्पित
कल शिक्षक दिवस पर बहुत से विद्धयार्थियों ने शिक्षक दिवस पर आभार और प्रेम व्यक्त किया । पुराने छात्रों ने यहाँ तक कहा कि आज जो हूँ आपके कारण से हूँ । शाम होते होते एक मित्र ने एक संदेश दिया तो उसके ऊपर विचार किया ।
क्या आज का शिक्षक सही अर्थों मे वह शिक्षक है जो एक सभ्य समाज की संरचना कर सके ।
कारण स्पष्ट है कि आज की शिक्षा प्रणाली जो अंग्रेजों ने चलायी और आज़ादी के बाद भी हम ढो रहे हैं एक सशक्त समाज कि रचना नही कर सकी यह तो हम सब देखते हैं
सभी धर्म सभी संस्कार सीखते हैं कि प्रेम करो प्रेम से रहो परंतु यह शिक्षा प्रणाली ही प्रतिस्पर्धा पर आधारित है सहयोग पर नहीं । आज का या हर समय का समाज हर वर्ग में सहयोग की भावना से ही चल सकता है
अगर हम बच्चे के बचपन को तलाशें तो जब बच्चा गिर जाता है कहीं पर किसी वस्तु से ठोकर खा कर उसे कहा जाता है इसे धत्त कर दे या इसे मार फिर यह वस्तु तुझे नहीं गिराएगी अंजाने मे हमने बच्चे के मन यह विचार डाल दिया कि जो तुम्हें मारे उसे तुम भी मारो । क्या ही अच्छा हो यदि बच्चे को समझाया जाये जिस वस्तु ने तुम्हें कष्ट दिया है उसे पुचकारो, प्रेम करो फिर यह तुम्हें तंग नहीं करेगी।
समाज मे जब बच्चा अपने अभिभावक के साथ है और अभिभावक के साथ अन्य लोगों के सामने कोई गलती करता है तो अभिभावक या पिता को बुरा लगता है और वह समझाने की कोशिश करता है कि यह गलत है वहीं पर अन्य मित्र या लोग कहते है “कोई नही बच्चा है” । कल्पना करें इस घटना से बच्चे के कोमल मन पर पिता या अभिभावक के विरोध मे विचार आते हैं । उसमे भावना घर कर जाती है कि मेरे पिता या अभिभावक सबसे ज़्यादा रोक टॉक करते हैं।
उसके उपरान्त जब बच्चा अपने स्कूल जाता है वहाँ से तो उस पर प्रतिस्पर्धा का बोझ लाद दिया जाता है। जो अगली पंक्ति मे आता जो कक्षा मे प्रथम आता उस पर वाह वाही और दूसरों पर छींटाकशी । उस को देखो वह पढ़ लिया तुम क्यों नहीं नंबर ला पाते ।
इसके परिणाम जो तथाकथित आगे है उसके अहंकार को बढ़ावा मिलता है और जो पीछे है उसमे हीं भावना घर कर जाती है । क्या परोक्ष रूप से शिक्षा तंत्र यह नही सिखाता सबको पीछे करो और आगे बढ़ो, इस प्रतिस्पर्धा से ही ईर्ष्या जन्म लेती है । आप पढ़ते है कि प्रेम से रहो परंतु सिखाते है ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा । इतना ही नहीं जब समाज के अभिभावक और माता पिता का जब कभी PTM इत्यादि मे अध्यापक से सामना होता है तो माता पिता का एक ही प्रश्न हमारे बच्चे के आगे कितने है ? और घर पर फिर बच्चा उसी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देता थक जाता है । जो आगे आता उसे पदक मिलते है उसे माला पहनाई जाती है जो पीछे रह गया उसे अपमानित कर रहे हैं । हमारा कल का बच्चा, आज का युवा इसी वातावरण मे बड़ा हुआ है । यदि आज का युवा कुछ कहीं गलत सोचता है तो शायद उसके अध्यापक, उसकी परवरिश का समाज भी कुछ हद तक दोषी है । चलिये आज से इसको बदलने का प्रयास करें । हर समाज का का आधार है उसके बच्चे जो कल युवा बन कर देश को आगे ले जाएँगे
अंतिम एक बात को और समझने की आवश्यकता है कि “वर्तमान की दृष्टि मे अतीत हमेशा दोषी है यदि ऐसा न हो तो समाज की प्रगति का रास्ता रूप जाएगा” यह शिक्षा भीष्म पितामह ने अपनी शरशैय्या पर लेटे हुए पांडवों को दी. शायद आज इसकी फिर आवशयकता है