कुछ समय पहले तक शिक्षा और चिकित्सा का क्षेत्र सबसे पवित्र माना जाता था । उस समय शिक्षक और चिकित्सक को भगवान के बाद का स्थान दिया जाता था । जब कोई रोगी गंभीर रोग से किसी चिकित्सा से स्वस्थ होता था तो उसके मुख से यही निकलता था कि आप मेरे लिए भगवान बन कर आए हो !
यही स्थिति, जब एक विध्यार्थी कुछ बन कर आता था तो अपने शिक्षक के लिए कहता था । क्या आज हम उस स्थिति को खो चुके है । आज शिक्षा और स्वास्थ्य का ही व्यवसाय पूरे समाज मे संशय की दृष्टि से देखा जाता है । अब फिर भी चिकित्सा के क्षेत्र मे second opinion के नाम से आप दूसरे चिकित्सक से राय ले सकते हैं और चिकित्सक आज इसे कुछ हद तक मानने लगे हैं । जबकि पहले इसे वह अपना अपमान समझते थे । इसके लिए कुछ समाज में जागृति आई कुछ सरकारी नियम कुछ कानून बदले गए। इसका कुछ सकात्मक और कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ा पर आज मैं शिक्षा से संबन्धित बात करूंगा ।
कुछ तो समाज में अभिभावकों नें अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ा ली और इसका पूरा लाभ आज के कोचिंग सेंटर नमक व्यवसाय नें कमा लिया । पहले उन बच्चों और अभिभावकों की सोचे जो विध्यार्थी NEET या चिकित्सा क्षेत्र का प्रश्नपत्र देते हैं । पूरे देश में आज प्रमाणित चिकित्सकों की संख्या 6.5 लाख है । जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत को 13.5 लाख चिकित्सकों की आवशयकता है । जिसमें आयुर्वेदिक, होमेओपथिक, यूनानी इत्यादि समस्त शाखाएँ सम्मालित हैं । फिर भी इस देश में सरकारी प्रति बर्ष मात्र 64,000 के आसपास नई चिकित्सकों के लिए स्थान है ।
कुछ लोग इस व्यवसाय में सेवा भाव से आते हैं । कुछ धन कमाने के लिए, धन कमाने में कुछ बुराई नहीं समझता जब तक वह नैतिक मूल्यों के साथ की जाए । अब लगभग 12,00,000 लाख विध्यार्थी इस परीक्षा मे बैठते हैं । हमारी शिक्षा कुछ ऐसी हो गयी है मात्र विध्यालय मे पढ़ कर आप बहुत अच्छे अंक इन प्रतियोगी परीक्षाओं मे नहीं ले सकते । अब यहीं से शुरुआत होती है उस खेल की, जिसमे हमारे युवाओं और अभिभावकों को कई प्रकार से हानी होती है । मैं किसी भी परीक्षार्थी की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा हूँ । मेरी मान्यता है की भारत का 90% विध्यार्थी किसी भी क्षेत्र मे दक्षता प्राप्त कर सकता हैं, शर्त मात्र इतनी है कि उसे उस के मन माने विषय पढ़ने को दिये जाएँ और समय समय पर उसकी रुचि का ध्यान रखा जाए ।
आइये आगे चलें, इन 12 लाख बच्चों में लगभग 9 लाख ऐसे हैं जिन्हे अपने विषयों की न तो पूर्ण जानकारी है न ही उनमें रुचि । कुछ तो माता पिता या अभिभावकों की महत्वाकांक्षा की भेंट चड़ जाते हैं और कुछ बिना सोचे समझे अपने मित्रों के कहने पर यह राह चुन लेते हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो समझते हैं की यदि जीव विज्ञान का विषय लिया है तो NEET दिये बिना जीवन सफल नहीं है । NEET का पेपर न हो गया किसी रास्ते के मंदिर का दर हो गया जहां पर माथा टेके बिना आगे चल नहीं सकते । अब इस 9 लाख बच्चों में से अधिकांश यह स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वह इस प्रतियोगी परीक्षा में सफल नहीं होंगे, परंतु अभिभावक यह समझ कर कि हमारा बच्चा पढ़ने से वंचित न रह जाए उसे बड़े बड़े कोचिंग सेंटर पर भेजते हैं ।
अब इन बच्चों के बचपन से सभी कोचिंग सेंटर वाले खेलते हैं । यदि बच्चा कहता है कि मुझसे नहीं हो रहा है तो स्पष्ट है कि अभिभावक न्यूनतम रूप से यही कहेंगे कि कोई बात नहीं कोशिश करके देख लो । कुछ तो यहाँ तक कहते हैं कि तुमसे क्यों न हो पाएगा ? कौआ तुम मे कुछ कमी है इत्यादि इत्यादि । अब बच्चे के पास उसी परिवेश में समय व्यतीत करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहता । माता पिता इस सत्य कि स्वीकार नहीं करते कि विध्यार्थी करना नहीं चाहता । कारण कुछ भी हो । मैं फिर स्पष्ट कर दूँ कि मैं उस विध्यार्थी कि क्षमता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रहा हूँ परंतु उसकी रुचि की ओर बात को कह रहा हूँ । इन 9 लाख बच्चों से औसतन 2 लाख प्रति वर्ष के अनुसार कोचिंग सेंटर लेते है और लगभग 1 लाख से 2 लाख प्रति विध्यार्थी अभिभावकों पर अतिरिक्त पर बोझ पड़ता है (रहना, खाना इत्यादि) अब इस को समझिए तो यह माता पिता कि जेब से 30,000 करोड़ रुपये को खर्च किए जाते है और । यही आंकड़ा यदि दो वर्षों की शिक्षा पर मान जाये तो 60,000 करोड़ तक पहुंचता है । इसके फलस्वरूप विध्यार्थी को असफल विध्यार्थी का ठप्पा दे दिया जाता है उस पर जीवन भर का कलंक मुह बाए खड़ा रहता है कि तुमसे NEET का पेपर नहीं दिया गया और अच्छे अंक प्राप्त नहीं हुए । इसके साथ ही बच्चे के जीवन के 700 दिन आपने खुद से जीने नहीं दिये ।
यह हुआ अभिभावकों के साथ भ्रष्टाचार परंतु इसके लिए बहुत हद तक अभिभावकों और बच्चों का संवाद न होना और कोचिंग सेंटर का कोई अपना उत्तरदायित्व न निभाना मुख्य कारण है । आप सोचेंगे मैं क्यों कोचिंग सेंटर पर प्रश्न उठा रहा हूँ । जब कोचिंग सेंटर उत्तीर्ण हुए बच्चों का श्रेय लेने से पीछे नहीं हटते और उन उत्तीर्ण बच्चो को पूरी तरह से झूठ सच जोड़ कर अपने व्यवसाय को बढ़ाने में लगते हैं तो अनुत्तीर्ण बच्चों कि ज़िम्मेदारी क्यूँ नहीं लेते ? कम से कम समय रहते अभिभावकों को बताने का कष्ट तो कर सकते हैं कि आपका बच्चा हमारे अनुमान से ठीक नहीं कर पा रहा है । पर न तो अभिभावकों को सत्य समझने में कोई रुचि है और न ही कोचिंग सेंटर को अपना तथाकथित धंधे पर चोट लगाने की ।
परंतु मेरे दर्द इन 9 लाख बच्चों नहीं है क्यूंकी कम से कम यह बच्चे तो स्वयं में असलियत जानते और समझते है । इसमे मात्र बच्चों के बचपन का और अभिभावकों के पैसे का खर्चा बेकार होता है । उसकी भी कीमत बहुत है क्योंकि देश के 9 लाख युवाओं को एक इसके अभिरुचि के विरुद्ध परीक्षा के परिणाम से अयोग्य ठहरा दिया गया, पर इससे बड़ी चुनौती एक और होती है । आइये उसे समझा जाए ।
बचे हुए 3 लाख मे से जो बहुत ही गंभीरता से इस परीक्षा की तयारी करने मे रात दिन एक कर देता है, न दिन का होश, न रात का होश परन्तु एक मात्र लक्ष्य ले कर पढ़ता रहता है उनमें से मात्र 25% यानि 75000 को अधिकतम इस क्षेत्र में प्रवेश मिल पता है । अब जिस जिस जगह वह पढ़ता है उन कोचिंग संस्थाओं के लिए वह एक उपभोग की वस्तु बन कर रह जाता है । जिसमें से यदी वह सफल हो गया तो अगले वर्ष का व्यवसाय बढ़ाने का काम करेगा और यदि नहीं तो अपने हिस्से के पैसे शायद अगले वर्ष फिर उसी सपने को आँखों में ले कर फिर धंधा चमकाएगा । मुझे सबसे अधिक दर्द इन 2.25 लाख बच्चों का है । क्योंकि एक तो यह गंभीरता से अपने बचपन और जवानी के 2 वर्ष और कभी कभी इससे भी अधिक देता है और कड़ी मेहनत के बाद भी अपने साथ मात्र हताशा को ले कर आगे बढ़ता है । एक युवा जो हताशा को दिल में ले कर आगे बढ़ता है, उसे आप अपने युवा प्रधान देश का भविष्य सुधारने वाला मान लेते हैं । उन 2.25 लाख बच्चों में से अधिकांश का कोचिंग संस्थानों का पता होता है परन्तु वह भी न तो अभिभावकों और न ही विध्यार्थी को इस पर बताना अपना धर्म समझते हैं ।
महा भारत के एक प्रसंग पर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ कि जब गुरुवर द्रोणाचार्य मे अपने आश्रम मे युवराजों को एक पक्षी पर निशाना लगाने को कहा तो मात्र अर्जुन को ही ऐसा करने को दिया । और इसी प्रकार कि घटनाओं से उन्होने समझ लिया कि अर्जुन को धनुर्धर ही बनाना चाहिए । भीम को अधिक खाने की आदत थी तो उसे मल्ल युद्ध के लिए तयार किया । यह होती थी हमारी परंपरा जहां से छात्र को उसकी क्षमता के अनुसार चुन कर शिक्षा दी जाती थी । न कि आजकल की तरह सबको महत्वाकांक्षी बनाओ और धन कमाओ ।