Farmer Agitation ! Let us understand the BASICS and then Very Simple Solution Part 1

अभी हाल मे लगभग 35000 किसान महाराष्ट्र की विधान सभा तक पहुँच गए । अपने अपने गांवों से चलते यह यात्रा नाशिक से आरंभ हो कर मुंबई तक पहुंची । इस दौरान किसानों नें 180 किलोमीटर की यात्रा पाँच से अधिक दिनों तक चल कर तय की । उसके पहुँचने के बाद मुख्य मंत्री से प्रतिनिधि मण्डल मिला और सरकार नें कुछ मांगों को माना। कुछ पर समिति बैठा दी और कुछ को भविष्य मे मानने का आश्वासन दिया । समस्त किसान अपना आंदोलन समाप्त करके घर की ओर चले ।

किसान की प्रमुख मांगों मे उन पर कर्ज़ माफी का प्रावधान, फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की वृद्धि और बिजली में रियायत, और बेहतर सिंचाई व्यवस्था और उनकी ज़मीन को ज़बरदस्ती न हथियाना इत्यादि था । मूलत: किसानों के विचार में ऐसा होने से उन पर आर्थिक बोझ कम हो जाएगा, और वह समृद्धि से जीवन बिता पाएंगे। परन्तु इस बार किसानों की मांगों में महत्वपूर्ण यह भी था की 2006 के कानून के अनुसार आदिवासियों को ज़मीन उनके नाम पर मिलनी थी, जिससे वह सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें। कुछ मांगों को सरकार ने माना, कुछ के लिए समिति बैठा दी गयी कुछ पर आश्वासन इत्यादि किया । परंतु यह तय है कि कम से कम प्रतिनिधि मण्डल जो, मुख्य मंत्री से मिलने अंदर गया था, सरकार के निर्णय से आश्वस्त हो कर बाहर आया और आंदोलन समाप्ती की घोषणा कर दी ।

दो विचारणीय प्रश्न है ! जिन पर कम से कम राष्ट्र प्रेमी सज्जनों को सोचना चाहिए । इसके लिए आप भाजपा, कांग्रेस और किसी अन्य दल से संबन्धित न हो कर सोचें । पहला तो यह है यदि सरकार उनकी मांगों को मानने ही वाली थी तो फिर पाँच दिन तक किसानों का घर बार छोड कर 180 किलोमीटर की यात्रा करवाने की क्या आवश्यकता थी ? सरकार ने आधिकारिक रूप से कहा है कि हम उनकी मांगों का समर्थन करते हैं । तो क्या सरकार उनकी मांगों को पहले ही नहीं मान सकती थी । मेरे व्यक्तिगत विचार से यदि ऐसा हर बार होगा तो समस्त देश के मन में यही विचार रहेगा कि जब तक आप अपनी संख्या नहीं दिखाएंगे तब तक सरकार आपकी उचित मांग भी नहीं मानेगी । अर्थात फिर देश के हर तबके को अपनी उचित मांग पर भी आंदोलन करना पड़ेगा । देश के रूप में अगर सोचें तो 35,000 व्यक्तियों के 10 दिनों का देश को नुकसान हुआ है । इस हानी का उत्तरदायित्व किसे ठहराया जाएगा ? क्या हर बार देश को अपनी उचित, अनुचित मांग पर सड़क पर आना पड़ेगा ?

इससे महत्वपूर्ण दूसरा प्रश्न है कि एक बार आप ऋण माफ कर देंगे, उनको अपनी लागत से सस्ती बिजली भी दे देंगे और समर्थन मूल्य को भी बढ़ा देंगे । तो क्या किसान समृद्ध हो जाएगा । मात्र 250 वर्ष पहले कृषि प्रधान देश में कृषि का महत्व अलग ही था । तभी तो 1753 में जनमें महाकवि घाघ ने तब के समय को देख कर कहा था :

उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भीख निदान ।

अर्थात खेती या कृषि को व्यापार और नौकरी से बेहतर माना गया था । यह माना जाता था कि किसान ही अन्नदाता है, तो वह समाज में सब से समृद्ध हैं । आपको ध्यान होगा तब वस्तु विनिमय की व्यवस्था भी इसी अनाज इत्यादि से होती थी । और आज यदि आप देखें तो कृषि ही एक मात्र उद्दयोग है जिसमें निर्माता अपने समान की कीमत स्वयं नहीं लगा सकता । जबकि उसकी लागत पर भी उसका अधिकार नहीं है ।


आज के किसान की समृद्धि का एक मात्र लक्ष्य होना है कि उसको अपनी लागत और मेहनत के अनुरूप लाभ मिले । बेहतर सिचाई व्यवस्था, सस्ती बिजली, सस्ता कर्ज़, कर्ज़ माफी इत्यादि यह सब तो उस लक्ष्य तक पहुँचने के रास्ते मात्र हैं । यदि किसान को उचित लाभ अपने काम का मिले तो वह क्यों सस्ती बिजली माँगेगा, क्यों सस्ता ऋण माँगेगा और क्यों कर्ज़ माफी के लिए कहेगा । उसके लिए उसे लागत उचित मात्र और कीमत पर मिले । फिर वह काम करे तो उसका उत्पादन भी अच्छा रहे और तब उसकी कीमत मिले ।

आज किसान बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि और ओला वृष्टि इत्यादि के बाद सरकार से क्षतिपूर्ति या मुआवजा मांगता है । यह तो सत्य है कि आज हमने जो प्रकृति का दोहन किया है उसके फलस्वरूप ही यह प्राकृतिक आपदाएँ अधिक हो गयी हैं । परंतु फिर भी कभी कभी तो आपदाएं पहले भी होती थी। पर तब किसान अपनी समृद्धि से जी आराम से गुज़र बसर कर लेता था । आज किसान को निर्वाह मात्र का धन भी मुहैया नहीं होता है, इसलिए छोटी से छोटी आपदा पर वह सरकार से भीख मांगने पर मजबूर हो जाता है। यदि हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो इस कृषि सम्पन्न देश की उपज विश्व की प्रति हेक्टेयर उपज से लगभग आधी ही है ।

यदि पूरे विश्व के 168 देशों आंकड़ों को देखा जाए तो nationmaster.com के अनुसार भारत का स्थान 84 आता है । भारत मे 2017 के प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत के 2.4 टन प्रति हेक्टयर मुक़ाबले मे विश्व 5.3 टन प्रति हेक्टयर के अनुसार चावल उगा रहा है । कमोवेश यही स्थिति हर फसल की है । इसी कारण भारत को अपने देश मे लगभग 30% दालें आयात करनी पड़ती हैं । यदि किसान की उपज न सुधरी तो यह ऋण माफी, और सस्ती बिजली इत्यादि से छोटे मोटे उपाय कुछ नहीं कर पाएंगे । हमें हमेशा दूरदर्शी बन कर उपाय सोचने पड़ेंगे । वरना जैसे पहले राजनीति हो रही है वैसी ही होगी । सबसे महत्वपूर्ण हैं कि फसल बढ़े और सिंचाई की सुविधा प्राप्त हो, उसके बाद बाज़ार जाने के लिए संरक्षण प्राप्त हो ।

WORLD AGRICULTURE OUTPUT

आइये इसे समझें भारत मे सरकारी आंकड़ों के अनुसार 819 विश्व विध्यालय है जिसमें स्नातक स्तर पर तथाकथित पढ़ाई होती है ।  इसमे से कृषि से संबन्धित मात्र 67 विश्व विषयालय हैं । मतलब भारत के मात्र मात्र 8.1% । अब आप समझें कि यदि इसी गति से देश नें प्रगति करनी है तो हमें अपने आपको विश्व का कृषि प्रधान देश कहना छोडना पड़ेगा । अब इसके आगे की विडम्बना देखिये कि बहुत ही कम स्थानों पर स्थानीय जलवायु और स्थानीय मिट्टी के अनुसार पाठ्यक्रम बनाया है । देश की इस विषय की अधिकतर पुस्तकें विदेशी अनुसंधान की देना हैं । यह तो आप सब मानेंगे कि हर स्थान की जलवायु, मिट्टी इत्यादि पैदावार को समझना पड़ेगा न कि अमेरीकी जलवायु की शिक्षा हमारे काम आएगी । चलिये इसने के बाद भी जो कुछ थोड़ा बहुत शोध होती है उस को किसानों तक नहीं पहुंचाया जाता है । किसान यदि कुछ सीख पाता है तो बस नये प्रकार के बीज को । सारी की सारी प्राकृतिक खेती को रसायनिक बनाया गया है, किसान को यह समझा कर कि इससे उपज बढ़ेगी । अन्त मे न तो मिट्टी बची न ही उपज हो रही है । रसायनिक उर्वरक का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि फिर इसे अधिक सिंचाई की आवश्यकता है। सिंचाई व्यवस्था है नहीं पूरी तो किसान मात्र इन्द्र देवता पर निर्भर हो कर रह गया है ।

पूरे देश मे एक भी संस्थान ऐसा नहीं है जो सिंचाई पर अध्ययन करवाए । विश्व भर मे ऐसे कई संस्थान है जो अपने देश की सिंचाई के ऊपर काम करते हैं । नए Engineering के कोर्स हैं । भारत मे Water Resource Engineering के नाम पर कुल तीन विध्यालय हैं । क्या तो आने वाली पढ़ेगी और क्या देश मे बदलाव लाएगी । किसान को उसकी मिट्टी के अनुसार, उचित शोध किया हुआ बीज, उपज और सिंचाई का ज्ञान मिलना चाहिए। अभी की सरकार ने पहल तो की है कि जगह जगह soil testing लब बना दी है । अब धरातल पर इसका असर कुछ समय बाद ही पता चलेगा । भारत के प्राचीन काल मे कृषि संबन्धित सिंचाई के लिए और पीने के लिए तालाब, बावड़ी इत्यादि रहती थी । आज भी उसे जीवित किया जाना चाहिए । शायद कुछ लोग समझें यह कैसे संभव है । मेरे मित्र अवधेश जी ने यह काम आगरा के इलाके में बिना अधिक धन के स्थानीय व्यक्तियों के सहयोग से कर दिया है । ऐसे कई लोग इन कामों पर लगे हैं । परंतु सरकार इनके प्रयासों को व्यापक करने का काम नहीं चला रही है । कुछ स्थानीय मीडिया में ही मात्र इसकी चर्चा है ।

अब आइये तीसरे मुद्दे जिसे आप समर्थन मूल्य की बात को समझें । भारत देश पहले तो अपना समर्थन मूल्य उचित ही नहीं रखता है । आप स्वयं देखिये, हर वर्ष देश मे 225 लाख टन की दाल की खपत के सामने कुल लगभग 175 टन दाल पैदा करता है । अब 50 लाख टन जो आयात की जाती है उसो सरकार लगभग 2 डॉलर प्रति किलो पर आयात करती है यानि लगभग 130 रुपये प्रति किलो । किसान को समर्थन मूल्य दिया जाता ही लगभग 50 रुपये प्रति किलो । आज का किसान दाल उगाने को तयार है पर उगा नहीं पाता है । उसका सबसे बड़ा कारण है उसका रख रखाव, नील गाय इत्यादि फसल को नष्ट कर देती हैं इसलिए या तो वह उस पर बाड़ लगाए, जिसके लिए उसे धन चाहिए, या कुछ और लगाए । किसान दूसरी फसल लगाता है । अब सरकार को आवश्यकता है, देश को आवश्यकता है, देश मे उत्पादब क्षमता है पर हम आयात करते हैं इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता । हर वर्ष की यही कहानी है । दूरदर्शन एवं अन्य चैनल पर बड़ी बड़ी बहस होगी । सब अपने घर चले जाएंगे , समस्या ज्यों कि त्यों ।  अब इसी क्रम में यह भी समझें कि देश के 85% से अधिक किसानों के पास 5 एकड़ से कम जमीन है । अर्थात वह किसान अपनी फसल को शायद सरकारी समर्थन मूल्य कि प्रणाली में ला ही पा रहा है । उसे आढ़तियों या बिचौलियों को आधी या दो तिहाई कीमत पर दे देना पड़ती है। तो उस किसान के लिए सरकारी समर्थन मूल्य का क्या औचित्य है । इस समर्थन मूल्य का औचित्य मात्र 15% किसान जिनके पास 5 एकड़ से अधिक ज़मीन उनके लिए ही है। यही 2015 में सरकारी समिति ने भी कहा है ।

   

अब बात समझिए यदि किसान को उसकी फसल का सही दाम मिल जाएगा और उसका शोषण बिचौलिये नहीं कर पाएँ । तो किसान कभी भी कर्जदार नहीं बनेगा बल्कि वह तो स्वयं साहूकार बन जाएगा । वह ऋण देने वाला बन जाएगा समाज को न कि ऋण लेने वाला।  यह ऋण माफी और सस्ती बिजली की समस्या मूल रूप से नष्ट हो जाएगी । सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत का कृषि बजट 36,000 करोड़ का है परंतु जो फसल किसान की खाद्द संसकरण के अभाव में बर्बाद हो जाती है, उसका नुमान 2017 की रेपोर्ट में है 93,000 करोड़ । यानि बजट का ढाई गुना या 250% । अभी जनवरी 2018 की रेपोर्ट के अनुसार भारत प्रतिदिन 244 करोड़ का खाद्द पदार्थ रोजाना नाश कर देता है । भारत मे कुल अनाज का की खपत है 23 करोड़ टन की और भारत की पैदावार है 28 करोड़ टन। आप स्वयं सोच सकते हैं की क्या हमारे किसान को भीख देने की आवश्यकता है या स्वावलंबी बनाने की । स्वावलंबी बनने के लिए उसके लिए उचित बाज़ार का प्रबंधन और उसके उपज का खाद्द संस्कारण में उचित उपयोग ही चाहिए । किसानों की समस्या बहुत विकराल रूप ले चुकी है । इसके स्थायी और सरल समाधान पर पर चर्चा अगले अंक में !

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