Valentine Day, History and Relevance Today

वैलंटाइन डे और इसकी आज के समय में इसकी प्रासंगिकता !

इस बार फिर 14 फरवरी को देश भर में नई लहर चलाएगी और इस प्रेम दिवस को मनाया जाएगा । कुछ लोग इसका विरोध करेंगे, समाज में अश्लीलता फैलाने वाला बताएँगे और कुछ लोग इसे आज के सभी लोगों के लिए, विशेषत: युवाओं के लिए प्रेम संदेश देना के लिए या प्रेम दर्शाने का उत्तम अवसर समझेंगे । वैसे इस प्रकार के विरोधी विचारों को एक साथ समाज में रहना ही एक परिपक्व लोक तांत्रिक भारतीय समाज की रचना करता है। हाँ जब इसमें से कोई भी पक्ष अपनी धारणाओं या विचारों को दूसरे को मानने पर बाध्य करने की कोशिश करते हैं तो यह एक नकारात्मक रूप ले लेता है ।

आइये इसके विरोध और सहयोग से पहले इस दिन के विषय में इसके इतिहास को जानते हैं । लगभग तीसरी शताब्दी मे जब रोम इत्यादि देशों में युद्ध बहुत होते थे वहाँ के राजाओं को सैनिकों की अत्याधिक आवश्यकता रहती थी और वह भी बेहतर योद्धाओं की । तब के राजा क्लाडियस के अनुसार अविवाहित योद्धा विवाहित योद्धा की अपेक्षा बेहतर होता है । तब उस समय के राजाओं ने विवाहों पर मुख्यत: योद्धाओं पर प्रतिबंध लगा दिया । कुछ समय उपरांत वहाँ पर विवाह की परम्परा लगभग समाप्ती की ओर जा रही थी । यहाँ तक की देश के अधिकांश युवक विवाह से राजा के डर से कतराने लगे । उस समय पुरुष अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए महिलाओं से शारीरिक संबंध करते थे परंतु विवाह नहीं करते थे । इस प्रकार बहुपुरुष और बहुनारी संबंध वहाँ पर सामान्य होने लगे । इस प्रकार के सम्बन्धों के चलते बहुत से शारीरिक और मानसिक रोगों का जन्म हुआ । तभी वैलंटाइन नामक संत ने इसका विरोध किया और युवाओं को एक नारी के साथ ही जीवन बिताने की प्रेरणा देने जागे । उन्होने ने प्रेम, कामेच्छा और काम वासना मे अंतर समझाया । कुछ ही समय में युवाओं की बहुत बड़ी संख्या उनकी अनुयायी बन गयी । उस राजा को लगा कि यह तो मेरी सेना के लिए घातक रहेगा । उस समय वहाँ की चर्च से भी इसका विरोध करवाया गया । तब संत वैलंटाइन नें लोगों का गुप चुप विवाह करवाना भी शुरू कर दिया । अंत में उस राजा क्लाडियस ने वैलंटाइन को राज्य द्रोह के लिए 14 फरवरी को फांसी दे दी । तब से उनके अनुयायियों नें बहुत बड़ी मात्र में एकत्र हो कर उस दिन को प्रेम दिवस के रूप में मनाना शुरू किया ।

यूरोपीय मानसिकता

यह कथा उस समय कि पश्चिमी मानसिकता को और विस्तार से समझने में सहायता करेगी । इसके समय की ही Lupercalia त्यौहार से स्पष्ट होतो है जो 13 से 15 फरवरी को मनाया जाता था। इस त्यौहार में वहाँ के तब के पुरुष प्रधान समाज की झलक है । उस दिन पुरुष एक बकरी और कुत्ते की बलि चढ़ाते थे । उस बलि के फलस्वरूप समस्त दुष्ट आत्माएं शांत हो जाती थी  ऐसी मान्यता के कारण यह प्रथा बनाई गयी । फिर उन जानवरों के चर्म से वहाँ की महिलाओं को और वहाँ के खेतों की फसलों पर मार लगाई जाती थी । समस्त युवा लड़कियां इसके लिए वहाँ पंक्तिबद्ध हो कर खड़े हो जाती थी और उन के शरीर पर जब खाल का स्पर्श होता था तो अपने आपको भाग्यवान समझती थी । ऐसी मान्यता थी कि इससे उन युवतियों में प्रजनन क्षमता बढ़ेगी और इसी प्रकार खेतों में फसल बढ़ेगी। मात्र इतना ही नहीं, इस प्रथा के बाद शाम को एक शीशे के जार मे सब युवतियों का नाम लिख कर रख दिया जाता था और पुरुष उसमें से एक एक नाम निकलते थे । जिस स्त्री का नाम निकलता था वह उस पुरुष के लिए एक वर्ष के लिए दे दी जाती थी । उसके उपरांत यदि पुरुष और स्त्री ठीक समझे तो एक वर्ष बाद विवाह कर लें नहीं तो अगले वर्ष वह युवती का नाम फिर उसी जार मे दाल दिया जाता था । यह दोनों त्योहार लगभग एक ही समय मनाए जाते थे इससे आपको पता लग गया होगा कि किस सीमा तक अंधविश्वास था और पारिवारिक सम्बन्धों से अधिक काम वासना का स्थान था । उस समय के तथाकथित संत ने अपने समय में समाज में सकारात्मक योग दान ही दिया ।

हमारा देश इस प्रकार के किसी भी अंधविशवास में नहीं जकड़ा हुआ था । जो भी इस देश में अंधविश्वास के नाम पर हुआ वह अधिकांश मुगलों और अंग्रेजों के राज्य मे ही हुआ है । इस सदी मे तो कलिंग युद्ध से पहले कोई भी बड़ा युद्ध तक नहीं हुआ । इस देश की मान्यताओं पर मतभेद के बावजूद भी लोग एक साथ मिल कर रहते रहे हैं ।

यह देश हमेशा से उस सभ्यता का परिपोषक है जिसमें विपरीत विचार होने पर भी साथ साथ रहा जाता है । यहाँ पर लोगों में बहुत मतभेद होने पर भी मनभेद नहीं हुआ । विभिन्न भगवानों को मानने वाला यह देश सभी भगवानों का आदर करता रहा है । यहाँ तक की किसी आस्तिक के साथ नास्तिक भी साथ साथ रहा है, दूसरे संप्रदाय या धर्म की तो बात ही क्या है ?

परंतु इस उच्च कोटी की सभ्यता वाले देश में ऐसा क्यों हो गया है ? आइये इसके कारण को समझें । सभी इस बात को समझें की भारतीय मूल स्वरूप से शांति प्रिय ही रहा है । हम में दूसरों से शांतिप्रिय वातावरण में ही विरोध करने की क्षमता रही है । परंतु अंग्रेजों के राज्य के समय से ही कुछ स्वार्थी ताकतों नें देश को विभाजित करने का हर समय षड़यंत्र ही रचा है । कभी राजनीति के नाम पर और कभी धर्म, संप्रदाय और कभी जाती में विभाजित करके । पर हम उन ताकतों से परास्त हुये इसका मूल कारण रहा है की हमने अपनी सभ्यता को ठीक प्रकार से समझा ही नहीं और इसे समझाने वाले कम लोग मिले। यह हमारे पाठयक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए था पर नहीं हुआ । इसके लिए आने ही वाली पीढ़ी को बहकाना बहुत कठिन कार्य नहीं रहा है और देश विरोधी या कहें स्वार्थी शक्तियाँ अपना उल्लू साधती रही है ।

वैलंटाइन डे का आर्थिक पहलू

आज यह मात्र आर्थिक कारणों से चल रहा है । इस को सभी व्यापारी संस्थान अपने प्रेमी/प्रेमिका को एक उपहार देने के रूप में बता कर बेचते है । दिन के अमेरिका मे पिछले वर्ष लगभग 20000 मिलियन डॉलर का व्यापार मात्र इस दिन हो रहा है । इस वर्ष $385 का एक चॉक्लेट तक बिक रहा है । भारत में ही अनुमान से 1500 करोड़ रुपये की खरीददारी इस दिन 2013 में हो गयी थी । अब इस वर्ष तो अनुमान है कि यह आंकड़ा 2000 करोड़ को पार कर जाएगा ।

भारतीय प्रणय

यह सब उन सभ्यताओं के लिए तो शायद ठीक होता जहां शाश्वत सम्बन्धों की व्याख्या नहीं है । भारत मे तो पति पत्नी सात जन्मों का साथ मानते हैं । हमारे यहाँ शारीरिक संबंध यानि वासना का स्थान विवाह के बाद ही है । फिर भी मानव के स्वाभाव के अनुसार इस में अपवाद हमेशा से रहे हैं । परंतु पहले यह सब अधिकांश छुप छुप कर होता था । पर आप एक बात पर ध्यान रखें भारतीय युवा तो शायद आज शायद शारीरिक सुख को अधिक महत्व दे भी दे परंतु भारतीय युवती आज भी प्रेम के उपरांत इस संबंध को स्वीकारती है । ऐसे में यदि इस प्रकार के क्षणिक सुख के बाद बिछडना पड़ता है, किसी भी कारण से तो भारतीय युवती के लिए आज भी जीवन सहज नहीं होता । इसलिए आज युवाओं को समझने की आवश्यकता है । प्रेम या प्रणय निवेदन मे कुछ भी त्रुटि नहीं है क्योंकि युवा अवस्था में समय के साथ विपरीत लिंगों में आकर्षण स्वाभाविक है। परंतु आप का जीवन इतना छोटा नहीं है की क्षणिक सुख या आवेग में आप अपने जीवन का सर्वस्व त्याग दें । यदि आप को अपने प्रेमी प्रेमिका पर विश्वास है तो सब ठीक है ।

भारतीय दर्शन में प्रेम का अपना ही स्थान है । पिता पुत्र का प्रेम, माता पुत्र का प्रेम, गुरु शिष्य का प्रेम,  पति पत्नी का प्रेम इत्यादि । इस दर्शन में प्रेम का अर्थ प्रणय ही है । देखिये प्रणय शब्द को ही तो इसमे प्रण का वास है अर्थात एक प्रतिज्ञा । दूसरे इसमे प्राण का वास है । अर्थात इस भावना का प्रेम जो प्रतिज्ञाबद्ध और प्रण तक में वास करने वाला । विवाह को इसीलिए प्रणय सूत्र कहा गया है । जबकि दूसरी सभ्यता में यह मात्र शारीरिक आकर्षण तक सीमित है । आप देखें breakup जैसे शब्द जिसे यदि विवाह के बाद किया जाये तो divorce या तलाक है जिसका हिन्दी में कोई तथाकथित अनुवाद नहीं हैं, क्योंकि हमारे समाज में इसका स्थान ही नहीं है । प्रेम हमारे यहाँ शरीर के आकर्षण से न हो कर मन और हृदय के सामंजस्य से है ।

आज के युवाओं के लिए इतना समझना आवश्यक है कि एक तो इस परम्परा के इतिहास को समझें । दूसरे प्रेम कोई खेल नहीं है । कई बार ऐसा देखने मे भी आया है कि एक युवक या युवती को एक से अधिक प्रणय निवेदन इसी दिन आए हैं तो उनके लिए चुनाव कठिनतर हो जाता है । फिर आप जिसे मना करते हैं, कई बार आज की युवा पीढ़ी इसे अपने अपमान स्वरूप ले लेती है । युवाओं से अनुरोध है ऐसा आप न समझें । अप किसी पर भी अपना प्रेम बलपूर्वक नहीं थोप सकते । प्रेम एक मानवीय भावना है परंतु जब आप भारतीय दर्शन के अनुरूप समझेंगे तो प्रेम एक ईश्वरीय प्रेरणा ही है । दूसरे इसका समय आपके परिपक्व होने हे बाद का है । बचपन का प्रेम तो एक शारीरिक मोह मात्र होता है । उसके सत्य को भी पहचाने । इसके अतिरिक्त जैसा कहा गया है यह एक ईश्वरीय प्रेरणा तक बन सकता है, इसलिए इसे उपहारों की कीमत से मत देखिये परंतु एक दूसरे को समझने की कोशिश करें । अन्त मे से दिखावे की वस्तु न बनाएँ । प्रेम एक अत्यंत ही व्यक्तिगत अनुभूति है इसका सन्मान करें और अपने प्रिय को भी यही समझाएँ ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *