“हिमाचल की धाम” सामूहिक भोजन परंपरा और उस पर आधुनिकता या सुविधा का दुष्प्रभाव ! आइए समझें

भारत देश में, सामूहिक भोजन की परंपरा हमेशा से रही है । आपके घर परिवार में कोई उत्सव हो, कोई आपके समाज में सांस्कृतिक कार्यक्रम हो, अथवा कोई धार्मिक अनुष्ठान हो । इन सभी प्रकार के कार्यक्रमों की समाप्ति पर, अपने सहयोगी मित्रों के साथ, सामूहिक भोजन अथवा प्रसाद ग्रहण करने की परंपरा हमेशा से रही है । सिख  समुदाय का लंगर, किसी भी विकट परिस्थितियों में भी, हर जरूरतमंद को भोजन देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पा चुका है । इस पकारा आप लंगर, भंडारा इत्यादि नाम से भी जानते हैं । हिमाचल प्रदेश में यही प्रथा, धाम के नाम से प्रचलित है । हिमाचल प्रदेश में विभिन्न स्थानों की धाम वहां के नाम से जानी जाती है । कल्लू के इलाके में कल्लू की धाम, मंडी के इलाके में मंडी की धाम, कांगड़ा के इलाके में कांगड़ा की धाम, इत्यादि इत्यादि । इन सभी धामों में आप देखेंगे, उसे जगह की पैदावार से ही धाम बनाई जाती है । यही धाम यहां आसपास मंदिरों में भी प्रचलित है ।

ऐसी ही परंपरा पूरे देश में स्थान पर रही है । यहां की धाम में लोगों को पंक्ति पद्ध तरीके से बिठाकर भोजन करवाया जाता है । लोग एक पंगत अर्थात पंक्ति में बैठ जाते हैं, उसके बाद उन्हें पत्तल दी जाती है, परंपरा के अनुसार पत्तल के ऊपर पानी का छींटा मार के लोग पत्तल को साफ कर लेते हैं । और एक नियमित तरीके से चावल और विभिन्न सब्जियों और दलों को खिलाया जाता है । समय समय पर बीच में चावल इत्यादि बार बार दिए जाते हैं । और आप उसे जगह बैठकर भोजन तृप्त होकर करते हैं । समय के साथ लोगों ने, वृद्ध अथवा बैठने में असमर्थ लोगों के लिए कुर्सियां लगनी शुरू कर दी । अन्य कुर्सियों के साथ मैच की व्यवस्था भी की गई । इसी प्रकार सीमित दरियों की अपेक्षा, अब गद्दों  पर बिठाया जाने लगा । और भोजन करने के लिए भी लगभग 6 से 8 इंच का पटरा सामने रख दिया जाता है । यह सब समय के साथ साथ बदलाव हुए हैं ।

इसके साथ ही बहुत बड़ा बदलाव, यह हुआ है की पत्तल की स्थान के ऊपर, कभी थर्मोकोल की प्लेट का प्रयोग किया गया, कभी गत्ते की प्लेट का प्रयोग किया गया । और अब तो थोड़ी मोटी प्लेट के ऊपर सुनहरा या चांदी के रंग का जो वर्क होता है, वह भी लगा दिया जाता है । जहां पहले मिट्टी के बर्तन में पानी दिया जाता था, वहां बीच में ग्लास  दिया जाने लगा और आज लगभग पानी की बोतल साथ में दे दिया जाता है । यह सब बदलाव अपनी सहूलियत के लिए किए गए । कहीं पर अधिक धन का प्रयोग करके सुविधाओं को जुटा लिया गया । यह सब शायद आधुनिकता की दें थी ।

इसके अतिरिक्त धाम की परंपरा में लोगों को निश्चित सब्जियां या दालें खिलायी जाती हैं । इसका यह प्रभाव रहा कि आप निर्धन हैं या धनी आपको उतनी ही सब्जी इत्यादि बनवानी है, जिससे किसी मे हीनता या अधिक बना कर अहंकार का भाव न आए । हमारे समाज में यदि आप के पास धन अधिक भी है तो उसको दिखावा करने को अच्छा नही समझा जाता था ।

किस भी प्रकार की सामूहिक भोज में, पूरे देश में भोजन को पत्तल  में अथवा दोनों में परोसने की परंपरा रही है, परंतु इन पतलो अथवा दोनों में भी भोजन करने की कुछ कारण थे । हमारी संस्कृति में कभी भी खड़े होकर, buffet  में खाना खाने की परंपरा नहीं थी । अब इस पत्तलों  के औषधीय गुण को हम नहीं समझ पाए, और आने वाली पीढ़ी को नहीं समझ पाए, इसीलिए शायद पत्तलों को हटाकर के प्लेटो ने स्थान ले लिया । दरअसल विभिन्न पत्तों से पतले बनाई जाती हैं । और उन पत्तों में विभिन्न औषधीय गुण हैं । लकवा से पीड़ित व्यक्ति के लिए पलाश का पत्ता प्रयुक्त होता है, जिन्हें जोड़ों का दर्द हो उसके लिए करंज के पत्तों से पर भोजन करना बहुत लाभदायक होता है । इसी प्रकार पलाश के पत्ते के ऊपर भोजन करने से खून साफ होता है तथा बवासीर के रोगियों को लाभ होता है। केले के पत्तों को में भोजन करने से, शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है ।

शायद अन्य गुणों के कारण, इन पत्तलों में भोजन करने की परंपरा रही थी । आप बाजार में जाकर कई बार चाट खाते  हैं, इस चाट शब्द का प्रारंभ इसलिए हुआ कि पत्तल अथवा दोनों पर रखी हुई चीज को अपनी जुबान से चाट लेते हैं । इसके कारण, कुछ पत्तों  की औषधि गुण आपको प्राप्त हो जाते हैं । अब आप समझ सकते हैं कि पत्तलों  पर खाना खाना, दोने  में खाना खाना कितना बड़ा विज्ञान था ।

प्रारंभिक परंपरा में पत्तल हमेशा हरी मतलब पेड़ों के ताज़ा टूटे हुए पत्ते होते थे, इसके कारण इनमें औषधीय गुण अधिक होते थे । अच्छा क्योंकि यह, ताजे पत्तों की होता तो इसको मोड़ना मतलब फोल्ड करना आसान था । और अंत में इन्हीं पत्तों को आप जब फेंक दिया करते थे वह आराम से खाद बन जाती थी । कालांतर में सूखे पत्तों की बनने लगी तो सूखे पत्तों के अंदर वह औषधीय गुण धीरे धीरे समाप्त होने लगे, उसके साथ ही  पत्तलों को संभालने में कड़कड़ आवाज आती थी । उसके कारण भी इन पत्तलों हटाया गया ।

अब बदलते समय में इस पत्थर के विकल्प के रूप में, कहीं पर थर्मोकोल की प्लेट आई और कहीं पर मोटे कागज अथवा पतले गेट की प्लेट आई । थर्मोकोल की प्लेट है वह भी एक प्लास्टिक का उत्पादन है, इसीलिए वह भी वातावरण में आसानी से खत्म नहीं होगी, और प्रदूषण ही फैलाए । अब बात करते हैं उसको हटाने के बाद जो गत्ते  की प्लेट बनाई गई, इस प्लेट के लिए भी आपको लकड़ी का गूदा चाहिए होता है, जिसके लिए आप पेड़ों को काटते हैं । तो यहां पर भी आप अपने वातावरण को खराब करते हैं । और इससे भी अधिक भयावह स्थिति यह है, कि उसके ऊपर जो सुनहरी अथवा चांदी के रंग वाली, परत चढ़ाई जाती है । वह या तो प्लास्टिक से बनती है, या फिर बायोप्लास्टिक से बनती है । । जब बायोप्लास्टिक को लगभग नहीं लिया जाता है, तो वह प्लेट बहुत महंगी पड़ती है । तो इसके लिए animal fat अथवा प्राणी वसा का प्रयोग किया जाता है । जिसमें लगभग जीव हत्या निश्चित है ।

इसके साथ ही कुल्हड़ में पानी पीने से लेकर के, आप पहले स्टील के गिलास तक आए । तो शायद उन गिलास को धोने की व्यवस्था कठिन होने के कारण, अथवा समाज में कुछ बेहतरीन दिखाने के लिए, यहां पर प्लास्टिक में पानी की बोतल दी जाती है । अब आप जरा सोचिए खाने की प्लेट में या तो प्लास्टिक की परत है, या पशुओं की वसा की बनी हुई परत चढ़ाई जाती है और साथ में के अंदर पानी को पिला रहे हैं । दोनों ही परिस्थितियों में यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । आप इतनी जागृति, बड़े शहरों में आ गई है की थर्मोकोल की प्लेट के स्थान पर, वहां पर स्टील के बर्तन बैंक बना रहे हैं । आप वहां से बर्तनों को ले लिए घर में अथवा समाज के कार्यक्रम सोने के बाद बर्तनों को धोकर के बर्तन बैंक में जमा करवा दीजिए । यह भी एक अच्छी पहल है, इसका स्वागत होना चाहिए ।

तो यहां पर यह सिद्ध होता है, की पत्तल का विकल्प ढूंढने के बाद, एक तो हमने पर्यावरण को खराब किया, दूसरा पत्तों के औषधीय गुण से दूर चले गए, तीसरा अपने स्वास्थ्य को भी खराब किया । इसके साथ ही पत्तल को फेंकते थे, तो अंत में उसे खाद ही बन जानी थी । लेकिन चाहे आप प्लास्टिक की प्लेट को फेंकें  या थर्मोकोल को फेंके यह दोनों ही आपके वातावरण के लिए हानिकारक है ।

इसकी अतिरिक्त एक, समाज के कुछ व्यक्ति होते थे जिनका काम पत्तल को बनाना होता था । इस आधुनिकता के दौड़ में हमने उन लोगों का रोजगार भी तोड़ दिया है । यह विचारणीय प्रश्न है कि हम कितने, इस आधुनिकता को स्वीकार करते आधुनिक हुए हैं ?

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