12% से 77% तथाकथित शिक्षा के बाद हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याएं बढ़ी या घटी ?

आज फिर से शिक्षक दिवस के ऊपर बहुत सी शुभकामनाएं मुझे प्राप्त हुई । सभी शुभकामनाएं बहुत से विद्यार्थियों से  स्नेह है, जिनको उनके जीवन काल के किसी समय पर, मैंने तथाकथित  पुस्तकीय ज्ञान दिया था । ऐसे में उन्हीं विद्यार्थियों से मिलने वाली बधाई से दिल प्रसन्न अवश्य होता है । अब मुझे लगता है कहीं ना कहीं पुनरावलोकन की आवश्यकता है, जिन विद्यार्थियों को शिक्षा दी गई थी, जो सोचकर शिक्षा दी गई थी और क्या हुआ वास्तव में फलीभूत हुई है । यह लेख में अपनी कम के विषय में बताने के लिए लिख रहा हूं, जो मुझे लगी है । किसी भी अध्यापक को, शिक्षक को अथवा गुरु को अपमानित करने का मेरा ध्येय नहीं है ।

जब भारत आजाद हुआ, तो इस देश में लगभग 12% साक्षरता थी । उस समय के शिक्षाविदों ने, पूरे देश को बच्चों को पढ़ाने के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों की घोषणा करी, जिसमें कुछ केंद्रीय थे और कुछ प्रादेशिक सरकारों द्वारा बनाए गए । तब शिक्षाविदों ने अथवा अध्यापकों ने, यह सोचा कि आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर जीवन मिले, इसके लिए इस शिक्षा की बहुत आवश्यकता है और अब हमें योग तथाकथित पुस्तक की अज्ञान इन्हें देना चाहिए । पूरे देश के शिक्षक बहुत जोर जोर से लग गए, कहीं ना कहीं आज भी माना जाता है कि तथाकथित शिक्षा देने के बाद देश और उन्नति  करेगा । लेकिन अब जब हम 77% से अधिक साक्षरता ले आए हैं, उसके बाद हमें यह समझना चाहिए हमारा समाज पहले से बेहतर हुआ है, या नहीं । व्यक्ति के व्यक्त के संबंध में, पूरे तौर पर उन्नति हो अवनति हुई । इसी प्रकार समाज में लोगों की संबंध, व्यवस्था के लोगों का संबंध, आचार व्यवहार में भ्रष्टाचार, व्यक्ति अथवा समाज में स्वार्थ बड़ा है या घटा है ? आप पाएंगे  इसमें से हर अच्छे व्यवहार में कमी आई है और बुरे व्यवहार में बढ़ोतरी हुई है ।

आप ऐसे भी देखिए कि अपने आसपास कि 10 बड़ी समस्याएं एक साथ लिख लें । चाहे वह भ्रष्टाचार हो, पर्यावरण हो, सम्पत्ति को ले कर झगड़े हों, पारिवारिक संबंधों में कटुता हो अथवा जो कोई भी आपको उचित लगे और इस बात पर विचार करें कि इस समस्या का निवारण क्या आज की पुस्तकीय शिक्षा से होगा या नहीं ? वहीं आप यह भी सोचिए यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व को बदला जाए तो क्या यह समस्याएं कम होंगी या नहीं । हमने पदार्थ ज्ञान में बहुत उन्नति की है इसी शिक्षा से । आपकी सुख सुविधाएं बढ़ी हैं, परंतु मानसिक शांति पर एक बड़ा प्रश्न है ?

प्रश्न क्या होता है, इतना शिक्षित होने के बाद भी ऐसा क्यों हुआ । ऐसे समझते हैं, हमने शिक्षा के नाम पर बच्चों पुस्तक का विज्ञान तो दिया । लेकिन बीते कुछ वर्षों में बच्चों को दिए गए व्यवहारिक, और नैतिक ज्ञान में बहुत कमी आई है । अब बात करते हैं पुस्तक की अज्ञान की । हमारी अधिकांश पुस्तकें बच्चों को ज्ञान नहीं अभी तो सूचनाएं ही रही हैं । ज्ञान को आपके जीवन में स्मरण करने की आवश्यकता नहीं है मैं आपके व्यवहार में आ जाएगा । जबकि सूचनाओं को स्मरण करने की आवश्यकता है । बाजार से आप किसी भी सामान्य ज्ञान की पुस्तक उठा ले । ओसिया ध्यान से देखिए गा उसमे मात्र सूचनाएं हैं, जो आज आपको गूगल पर उपलब्ध है ।

मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा हूं के अध्यापकों ने अथवा शिक्षकों ने मेहनत नहीं की, परंतु शायद उच्च शिक्षा की दिशा ठीक नहीं है । आप देखिए बच्चा दसवीं तक जो विषय पढ़ता है, उसमें से बहुत कम उसे स्मरण रहता है ।

हम बच्चे की परीक्षा भी उसकी स्वर्ण शक्ति के अनुसार लेती है ।

आपको शायद बचपन में युधिष्ठिर के साथ हुई कहानी याद हो । जब उसे गुरु द्रोणाचार्य ने कहा, कि क्रोध नहीं करना यही आज का पाठ है। तीन-चार दिन तक गुरुवर से युधिस्टर दंड लेते रहे, जब एक दिन द्रोणाचार्य ने पूछा कि तुम्हें इतना सपोर्ट क्यों याद नहीं हो रहा । तो उसने उत्तर दिया, गुरुवर अभी मेरे व्यवहार में नहीं आया है । और इसीलिए मैं मानता हूं अभी यह पाठ मुझे नहीं आता है ।

एक बात पर और आपका ध्यान आकर्षण करना चाहूंगा । शिक्षक वह है जो शिक्षा देता है, और आज के समय में वह उस पुस्तक अथवा किसी विषय की शिक्षा देता है । अध्यापक वहां होता है, जो किसी अध्याय को पढ़ाता है । यहां उसे पढ़ना क्या है, कौन सा अध्याय पाठ्यक्रम में होगा, या फिर प्रशासन तय कर रहा है । इस सबके होने के बाद भी, हम बच्चों से अपने सलमान की खातिर, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय, वाला तोहरा दोहरा देते हैं । यह कहते हुए कि गुरु का स्थान तो गोविंद से ऊपर है । लेकिन हम इसकी दूसरी पंक्ति कहना भूल जाते हैं, जिसमें कबीर कहा था, बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए । मतलब उस गुरु को राम करो ईश्वर के पास जाने से पहले उसका रास्ता दिया । आजम बच्चों को नौकरी का रास्ता देती है । अंको का रास्ता देती है । यदि वह अंक नौकरी भगवान है तो उससे पहले उस प्रणाम की हकदार हम अवश्य हैं । इस पर हमें विचार करना चाहिए । किसी अध्यापक को ठेस पहुंचाने का मेरा उद्देश्य नहीं है । पर यह मेरा स्वयं के प्रति आकलन है, कम से कम ऐसा सोचता हूं

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