गुरुपूर्णीमा मानने वाले देश में अपनेको भारत रत्न दिलवाने वाले, शोध के विवादों मे रहने वाले के नाम पर शिक्षक दिवस कितना उचित ?

जिस देश में गुरु पूर्णिमा के त्यौहार पावन त्यौहार  है क्या उस देश में हमें अध्यापक दिवस अथवा शिक्षक दिवस की आवश्यकता है?  आप अपने आप से पूछो आज का शिक्षक जो भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर मनाया जाता है । उनके विषय मे हम कितनी जानकारी रखते हैं ।

क्या आप जानते हैं कि भारत मे शिक्षक दिवस की स्थापना या कहिए उसकी नींव कब रखी गयी थी ? यह रखी गयी सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस पर, जो तत्कालीन राष्ट्रपति के पद पर आसीन थे । यह वही डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन हाँ जो 13 मई 1952 से 12 मई 1962 भारत के उपराष्ट्रपति रहे , तत्पश्चात 13 मई 1962 से 13 मई 1976 तक भारत के राष्ट्रपति रहे । आपके राष्ट्रपति काल में आते ही अपने जन्मदिन यानि 5 सितंबर को उन्होने शिक्षक दिवस के रूप में मनवाना प्रारम्भ कर दिया । जिस प्रकार जवाहर लाल नेहरू ने अपने आपको 15 जुलाई 1955 को भारत रत्न से नवाज़ लिया और ऐसे ही इन्दिरा गांधी ने 1971 मे अपने दूसरे प्रधानमंत्री पद के कार्यकाल मे अपने को भारत रत्न दिलवाया । अब ऐसे कैसे ?? यह आपके लिए प्रश्न है ?

एक बात और हम जानने की कोशिश करते है कि उन्होने अपने अध्यापन काल में क्या क्या किया जिनसे उनको प्रसिद्धि मिली । प्राप्त जानकारी के अनुसार कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक थे और उनकी निगरानी मे उनके शीशी यदुनाथ सिन्हा ने अपनी शोध करने का निर्णय लिया  । आपकी जानकारी के लिए पीएचडी करने के लिए एक मार्गदर्शक या गाइड होना आवश्यक है । घटना 1922 कि है जब अपने शोधपत्र का प्रथम भाग यदुनाथ सिन्हा ने अपने मार्गदर्शक यानि गाइड को दे दिया । मार्गदर्शक या गाइड को अपने नीचे काम करने वाले शोधकरता को उस शोधपत्र पर टिप्पणी करनी होता आउट शीधकरता मार्गदर्शक के अनुसार अपनी शोध को परिपक्व करता है । अब सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उस शोध पत्र पर कोई टिप्पणी नहीं की । परंतु लगभग 1926-27 मे इंडियन फिलॉसॉफी नामक पुस्तक छपी जिसके लेखक के रूप में सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम था । जिसने उन्हें बहुत प्रसिद्धि भी दिलवाई । इसी पुस्तक को जब यदुनाथ सिन्हा ने देखा तो उन्हे पता चला कि पुस्तक में कुछ अंश हूबहू उनके शोधपत्र जैसे थे और बाकी  पुस्तक भी लगभग उनकी पुस्तक मे कुछ हेर फेर के बाद बनाई गयी थी ।

https://en.wikipedia.org/wiki/Sarvepalli_Radhakrishnan#Education

यदुनाथ सिन्हा ने उस समय उन सभी मित्रों और अन्य प्राध्यापकों को एकत्रित करके अपनी व्यथा भी सुनाई । परंतु कुछ लाभ न हुआ । उसके उपरांत हताश यदुनाथ सिन्हा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय मे केस कर दिया और रुपये 20,000 का दावा थोक दिया । आप जानते हैं कि मानहानि का दावा ठीकने के लिए आपको अपनी हैसियत न्यायालय को बतानी पड़ती है, स्पष्ट है कि यदुनाथ इतने तक ही दावा कर पाये । इसके दूसरी तरफ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उल्टे यदुनाथ पर 1,00,000 रुपये का मान हानी का दावा कर दिया ।

https://en.wikipedia.org/wiki/Jadunath_Sinha

न्यायालय के कुछ अंश उस समय की पत्रिकाओं के सौजन्य से ऐसे थे

छात्र का कहना था, “मैंने दो साल पहले विश्वविद्यालय में थीसिस जमा करा दी थी। विश्वविद्यालय में इसका प्रमाण है। अन्य प्रोफेसर भी गवाह हैं क्योंकि वह थीसिस तीन प्रोफेसरों से चेक होनी थी – दो अन्य एक्जामिनर भी गवाह हैं। वह थीसिस मेरी थी और इसलिए यह किताब भी मेरी है। मामला एकदम साफ है…इसे पढ़कर देखिए….”

राधाकृष्णन की किताब में अध्याय पूरे के पूरे वही हैं जो थीसिस में हैं। वे जल्दबाजी में थे, शायद इसलिए थोड़ी बहुत भी हेराफेरी नहीं कर पाए। किताब भी बहुत बड़ी थी- दो भागों में थी। कम से कम दो हजार पेज। इतनी जल्दी वे बदलाव नहीं कर पाए…अन्यथा समय होता तो वे कुछ तो हेराफेरी कर ही देते।

परंतु न्यायालय के निर्णय से पहले ही यदुनाथ  को पैसे दे कर चुप करवा दिया और उसे शायद 10,000 रुपये दिये थे । ऐसा अपुष्ट सूत्रों के माध्यम से पत्रिकाओं और समाचार पत्रों नें  छापा ।

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