आज का यह सत्र विशेष रूप से चिकित्सकों पाल पर हड़ताल पर। एक समय था जब चिकित्सक को लगभग भगवान का दर्जा दिया जाता था, और उसी देश में आज रोगी के परिवार वालों से चिकित्सक को सुरक्षा है चाहिए और इस सुरक्षा के लिए उसे प्रशासन से मात्र सहायता ही नहीं, अपितु सुरक्षा सहायता के लिए संघर्ष भी करना पड़ रहा है । अचानक से इसमें चिकित्सकों पर इतना विश्वास कैसे हो क्या? इस बात को समझने के लिए आपको लगभग 30 वर्ष पीछे जाना पड़ेगा, जब 90 के दशक में वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण का ढोल पीटा जा रहा था, उस समय पश्चिमी देशों के विभिन्न समझौतों के अंतर्गत हमने कृषि, स्वास्थ्य स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायीकरण कर दिया। आप ध्यान रखें 90 के दशक से पहले शिक्षण संस्थान यानी विध्यालय और चिकित्सा संस्थान अस्पताल अधिकांश सरकारी होते थे या फिर किसी सामाजिक संस्था द्वारा संचालित या किसी उद्योगपति द्वारा समाज सेवा के नाम पर चलाये जाते थे। उनमें इलाज का व्यय नगण्य मात्र ही होता था यदि कहीं पर पर्ची भी कटती थी तो उसकी कीमत बहुत कम होती थी। इसके अतिरिक्त बड़े-बड़े चिकित्सक अपना कुछ समय किसी न किसी संस्था में धर्म दान रूप से भी दिया करते थे। चिकित्सकों की निजी व्यवसाय बहुत कम होता था, यानी अधिक समय या तो अस्पताल में व्यतीत होते थे या किसी अन्य संस्थान में। अधिकांश चिकित्सा के संस्थान सरकार द्वारा संचालित अथवा पोषित होते थे। इसके बाद 90 के दशक में चिकित्सा के क्षेत्र को एक व्यवसाय के रूप में घोषित कर दिया। इसके बाद चिकित्सा में और विध्यालयों में निजी संस्थानों ने आना शुरू कर दिया। इससे पहले इससे पहले बहुत कम निजी संस्थान थे जो चिकित्सा विज्ञान पढ़ाते थे।
अब जब यह एक व्यवसाय के रूप में घोषित कर दिया गया तो व्यवसायियों ने इसपर कार्य करके इससे लाभ उठाने की ठान ली, इसमें उनकी कोई त्रुटि नहीं थी क्योंकि वह तो व्यवसाय करने ही आए थे। अब बड़े महंगे और पाँच सितारा अस्पताल खुलने लगे जिनके कारण इलाज बहुत महंगा होने लगा। हमारी आर्थिक नीतियां भी दोषी रही, यह माना जाता रहा कि जितना धन स्वास्थ्य पर खर्चा करते हैं उतना देश का स्वास्थ्य बेहतर रहेगा। यदि कोई प्राणायाम और व्यायाम से बिना दवाई के जीवन यापन करते हैं, तब वह देश के सकल घरेलू उत्पाद में कुछ भी योगदान नहीं देता। देश का सकल घरेलू उत्पाद ही मात्र एक विकास का पैमाना बन गया है ।
अब इस नए-नए निजी चिकित्सा संस्थानों में बड़े बड़े अमीर घरानों के लोग जाकर पढ़ने लगे, (जिनका साधारण रूप से प्रवेश नहीं हो पाया) क्योंकि जो बुद्धिमान थे, उनका तो चयन सरकारी विध्यालयों में हो जाता था उनमें से कोई भी निजी विध्यालय में जाना पसंद नहीं करता था। एक तो यह माना जाता था किस सरकारी संस्थान बहुत सस्ते हैं, दूसरे बेहतर शिक्षा व्यवस्था कम पैसे मे पूरी होती है । अब इन नए संस्थानों में केवल उन्हीं चिकित्सकों की संताने पढ़ने जाती थी जिनके अभिभावकों ने अस्पताल खोल रखा था, या जिन चिकित्सकों की निजी प्रैक्टिस अच्छी चलती थी। उनको लगता था कि मेरी संतान अच्छा पढ़कर इस मेरे क्लीनिक को या अस्पताल को आगे चला ले, इसमें कोई परेशानी मेरी संतान को नहीं आएगी। अब निजी संस्थानों में प्रवेश शुल्क बहुत अधिक होता था, इसका कारण एक तो यह था की संस्थानों को मात्र लाभ के लिए ही खड़ा किया गया था और दूसरे इन संस्थानों में आधुनिक सुविधाओं को रखा गया।
इसके चलते चलते, इन चिकित्सा संस्थानों के अस्पताल बहुत महंगी होने लगे, क्योंकि इनमें 5 सितारा सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थी। इन अस्पतालों में जाकर आपको कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं होता है, आप किसी अस्पताल या चिकित्सालय में आए हैं वरण यह प्रतीत होता था कि आप एक 5 सितारा होटल में कुछ समय बिताने आए हैं। अब जब या इलाज महंगी होने लगे, और लोगों की जेब पर भारी होने लगे, तभी एक नई व्यवस्था सरकार के निर्देश पर बना दी गई जिसका की नाम चिकित्सा बीमा था। अब मध्यमवर्गीय परिवार, इस डर से कि यदि कभी चिकित्सालयों में जाना पड़े और यदि जाना पड़े तो उसका खर्चा आपको बहुत अधिक, चिकित्सा बीमा बानी करवाने लगे। तो इस प्रकार सरकार अपने दायित्व से मुक्त होने का विचार बनाने लगी । मूल कारण यही था कि सरकारों के पास पैसा नहीं था । कल्पना करें कि 20 लक्ख करोड़ के बजट मे सरकार 7 लाख करोड़ अभी भी कर्ज़ लेती है ।
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अब आइए किसी भी बीमा के मूल स्वरूप को समझते हैं। बीमा के अंतर्गत कुछ लोगों का खर्चा सब लोगों पर बांट दिया जाता है, परंतु संस्थान को पूरा पैसा मिल जाता है। इसे विस्तार से समझाएं, मान लीजिए प्रति लाख व्यक्तियों में 10 व्यक्तियों को हृदय रोग या हृदय आघात की बीमारी से गुजरना पड़ता है, तो 10 व्यक्तियों के इलाज के खर्चे को पूरे लाख बीमा धारकों में बांट दिया जाता है। जिनको बीमारी हुई उनके लिए बहुत फायदा हुआ क्योंकि अधिकांश धन बीमा कंपनी ने दे दिया और जिन को बीमारी नहीं हुई उनके ऊपर थोड़ी सी बीमा की राशि का ही बोझ पड़ा। धीरे धीरे इलाज महंगा होने के साथ-साथ इस बीमा कंपनी ने अपनी क़िस्तों की कीमत भी बढ़ा दी। उसका कारण भी आप समझे तो बीमा उद्दयोग को जितने लोग चला रहे हैं, जितने उनके एजेंट घर घर जाकर, या अपने दफ्तरों से बीमा करवाते हैं उन सब का खर्च बीमा कंपनी पर पड़ता है और वह खर्च ग्राहक से लिया जाता है। इस कारण बीमा की किस्ते भी महंगी हो गई।
आज के परिवेश में 40 वर्ष के व्यक्ति को यदि 500000 का चिकित्सा बीमा करवाना है तो उसके ऊपर लगभग 25000 सालाना की किस्त है। इसका अर्थ यह हुआ की प्रत्येक 2000 में से एक व्यक्ति भी यदि इलाज करवाएं बीमा कंपनी को फिर भी फायदा है। अब यह कंपनियों को चिकित्सालय अपने लिए कुछ ना कुछ कमीशन भी देते हैं, के बाद व संस्थान बीमा कंपनी में पंजीकृत होता है। ऑफिस पंजीकृत राशि को अस्पताल आपके इलाज से ही कम आयेगा इसीलिए अस्पतालों में इलाज और भी महंगा हो जाता है।
अब इसके एक और परिवेश को समझें जिसके बाद उपभोक्ता कानून बना और मरीजों को अथवा रोगियों को एक उपभोक्ता का दर्जा दे दिया गया। अब किसी अन्य व्यवसाय की तरह आप उपभोक्ता को हक नहीं सकते। यह तो हुआ कानूनी प्रावधान, परंतु सत्य है कि चिकित्सा व्यवस्था में एक ही बीमारी के लिए विभिन्न चिकित्सकों की अलग अलग राय भी होती है। इसमें चिकित्सकों का दोष नहीं है परंतु अपने अनुभव के आधार पर वर रोगी को रोग मुक्त करने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही मानव शरीर के हर अंग को आप विज्ञान की दृष्टि से या मशीन की दृष्टि से मर सकते क्योंकि व्यक्ति में शक्ति है। तू जब किसी प्रकार की राय दे, 71 सेकंड ऑपिनियन की प्रथा भी चल पड़ी। दुर्भाग्य है अधिकांश चिकित्सक विशेष तौर पर एलोपैथी में एक दूसरे की राय में, हम से कम जटिल रोगों में सहमत तो नहीं होते।
अब आइए किसी भी बीमा के मूल स्वरूप को समझते हैं। बीमा के अंतर्गत कुछ लोगों का खर्चा सब लोगों पर बांट दिया जाता है, परंतु संस्थान को पूरा पैसा मिल जाता है। इसे विस्तार से समझाएं, मान लीजिए प्रति लाख व्यक्तियों में 10 व्यक्तियों को हृदय रोग या हृदय आघात की बीमारी से गुजर ना पड़ता है, तो 10 व्यक्तियों के इलाज के खर्चे को पूरे लाख बीमा धारकों में बांट दिया जाता है। जिनको बीमारी हुई उनके लिए बहुत फायदा हुआ अलका अधिकांश धन बीमा कंपनी ने दे दिया और चीन को बीमारी नहीं हुई उनके ऊपर थोड़ी सी बीमा की राशि का ही बोझ पड़ा। धीरे धीरे इलाज महंगा होने के साथ-साथ इस बीमा कंपनी ने अपनी क़िस्तों की कीमत भी बढ़ा दी। उसका कारण भी आप समझे तो बीमा उद्योग को जितने लोग चला रहे हैं, जितने उनके एजेंट घर घर जाकर अल्पविराम या अपने दफ्तरों से बीमा करवाते हैं उत्सव का खर्च बीमा कंपनी पर पड़ता है और वह खर्च ग्राहक से लिया जाता है। इस कारण बीमा की किस्ते भी महंगी हो गई।
आज के परिवेश में 40 वर्ष के व्यक्ति को यदि 500000 रुपये का चिकित्सा बीमा करवाना है तो उसके ऊपर लगभग 25000 रुपये सालाना की किस्त है। इसका अर्थ यह हुआ की प्रत्येक 2000 में से एक व्यक्ति भी यदि इलाज करवाएं बीमा कंपनी को फिर भी फायदा है। अब यह कंपनियों को चिकित्सालय अपने लिए कुछ ना कुछ कमीशन भी देते हैं, इसके बाद ही संस्थान बीमा कंपनी में पंजीकृत होता है। यह सब राशि को अस्पताल आपके इलाज से ही निकलेगा इसीलिए अस्पतालों में इलाज और भी महंगा हो जाता है।
अब इसके एक और परिवेश को समझें जिसके बाद उपभोक्ता कानून बना और मरीजों को अथवा रोगियों को एक उपभोक्ता का दर्जा दे दिया गया। अब किसी अन्य व्यवसाय की तरह आप उपभोक्ता को ठग नहीं सकते। यह तो हुआ कानूनी प्रावधान, परंतु सत्य है कि चिकित्सा व्यवस्था में एक ही बीमारी के लिए विभिन्न चिकित्सकों की अलग अलग राय भी होती है। इसमें चिकित्सकों का दोष नहीं है परंतु अपने अनुभव के आधार पर वर रोगी को रोग मुक्त करने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही मानव शरीर के हर अंग को आप विज्ञान की दृष्टि से या मशीन की दृष्टि से मर सकते क्योंकि व्यक्ति में संजीवनी शक्ति है। इसके साथ कानूनन अब सेकंड ऑपिनियन की प्रथा भी चल पड़ी। दुर्भाग्य है अधिकांश चिकित्सक विशेष तौर पर एलोपैथी में एक दूसरे की राय में, कम से कम जटिल रोगों में सहमत तो नहीं होते। यहाँ पर भी दवा व्यापार उनके काम के आड़े आता है । नई नयी दवाइयाँ दे दी जाती है, चिकित्सक उनका उपयोग भी करते हैं । परंतु तभी पता लगता है उसी दवा के अधिक उपयोग से नए रोगों का जन्म होता है । क्योंकि यह नयी दवाएं लंबे समय के परीक्षण के बाद बाज़ार मे आनी चाहिए, परंतु दवा कंपनी अपने लाभ के लिए उतना समय प्रतीक्षा नहीं कर सकते ।
अब जब आप एक रोगी को उपभोक्ता समझते हैं, तो कोई न्यायालय इस बात का परीक्षण कैसे करेगा चिकित्सक ने इलाज ठीक किया है अथवा नहीं, क्योंकि अलग अलग इलाज की विधाएँ होती है । तो यह तय कर पाना गलत हुआ था किसी भी न्यायालय के लिए बहुत सरल नहीं है। कानून तो बन गया परंतु कानून का पालन करना बहुत कठिन है। आप एक उदाहरण से समझें, जर्मनी नामक एक देश है जहां से होम्योपैथी चिकित्सा व्यवस्था की शुरुआत हुई, परंतु आज भी हम जर्मनी की बनाई हुई होम्योपैथिक दवाई लेते हैं परंतु जर्मनी में इसे आज भी इन दवाइयों को दवा के नाम से नहीं दिया जाता, उसका कारण यह है उस देश का मानना है कि इस पर, इस दवाई पर लंबे समय तक क्लिनिकल टेस्ट नहीं हुआ है। अब ऐसे स्थिति में जबकि मानव शरीर एक जटिल अवस्था में होता है आप किसी चिकित्सक द्वारा इलाज ठीक है अथवा नहीं, इस पर निर्णय नहीं दे सकते।
मेरी हमेशा से मान्यता है, हमेशा कहता हूं कानून से किसी भी प्रकार से सामाजिक को नहीं जोड़ा जा सकता किसके लिए समाज में ही परिवर्तन की आवश्यकता है। किसी कानूनी व्यवस्था से आप जहां-जहां रोगी को न्याय दिलाने की बात करेंगे वही वही पर चिकित्सकों पर अविश्वास रोगी के अभिभावकों से बढ़ता जाएगा। दूसरा इस देश में कानूनी व्यवस्था मे कितना समय लगता है इससे हम सब अपरिचित नहीं है।
इसके साथ जो बहुत बड़ा परिवर्तन आया, वह यह था कि आज भारत में एलोपैथी में सरकारी विध्यालयों मे कुल 30000 विद्यार्थियों के लिए स्थान है, निजी संस्थानों में लगभग 70000 के लिए स्थान है परंतु NEET परीक्षा की संस्था प्रतिवर्ष लगभग 600000 विध्यार्थी को अपनी परीक्षा में पास बताती है। अब जो ऊपर के 100000 चुने हुए विध्यार्थी हैं वह तो ठीक हैं, परंतु बाकी के 500000 है उनकी स्थिति दयनीय है । पिछले वर्ष मैं अगर देखे तो जिस विध्यार्थी के भौतिक शास्त्र में -25 अंक है रसायन शास्त्र में 10 अंक है जीव विज्ञान में 185 अंक है मतलब कुल मिलाकर 185 अंक है उसे निजी संस्थान में प्रवेश मिल सकता है। न्यूनतम यदि आपके 105 अंक भी हैं 720 मे से तो आप निजी संस्थान मे प्रवेश पा सकते हैं । सरकारी संस्था में जाने के लिए से कम 570 अंकों की आवश्यकता है ।
ऐसी स्थिति में यदि किसी रोगी को मृत्यु हो जाती है या उसका इलाज गलत हो जाता है तो इसमें मात्र चिकित्सक का दोष नहीं कहा जा सकते, पूरी की पूरी व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है । जब तक इस पर विचार नहीं होगा मुझे लगता है, को पर अभिभावकों द्वारा मारपीट और चिकित्सकों का प्रकार प्रशासन सीन सुरक्षा का लेना यह चलता रहेगा हमें कहीं ना कहीं, किसी न किसी रूप से बेहतर चिकित्सक बनाने हैं और इसके साथी उन पर विश्वास रखने वाली व्यवस्था होनी चाहिए। जब एक निजी चिकित्सक संस्थान से एक करोड़ रुपया खर्च करके कोई चिकित्सक बनकर आएगा तो क्या आप उससे समाज सेवा की अपेक्षा करेंगे? कम से कम मुझे ऐसा नहीं लगता।