70 वर्षों के लोकतन्त्र में क्या पाया क्या खोया !

आज भारत विश्व का सबसे बड़ा  लोकतंत्र है। इसके लोकतंत्र को शुरू हुए लगभग 70 वर्ष हो चुके हैं, क्या हम इस लोकतंत्र में बीतते समय के साथ क्या हम परिपक्व हुए हैं ? । इस बात को समझने के लिए, जाने के लिए अथवा सोचने के लिए कोई बहुत बड़ी रॉकेट  साइंस नहीं चाहिए ।  आज कल के परिवेश में इसे उपलब्ध आंकड़ों  से समझा जा सकता है। इस लोकसभा चुनाव में, धीरे धीरे व्यक्ति पर छींटाकशी, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का जो  सिलसिला चल उठा है, जय हमारे लोकतंत्र के लिए कोई अच्छा चिन्ह नहीं है।

ऐसा नहीं है कि पहले कभी छींटाकशी नहीं हुई, या कभी व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप नहीं हुआ ।  लेकिन इस सभा के चुनाव तक आते-आते आप कितनी गिरावट देख सकते हैं, वास्तव अकल्पनीय थी।  आज से पिछले 70 वर्षों में जो बदलाव आ रहा है, वह अपेक्षा से कहीं कम है । जितना आना चाहिए इतना नहीं आ रहा। बात को समझने के लिए आप कुछ आंकड़ों पर गौर करें।

उस समय भारत में लगभग 18  करोड़ मतदाता थे और 46% मतदान हुआ था अगले ही वर्ष अगली लोकसभा में चुनाव का प्रतिशत बढ़कर 48% तक हो गया था और यह प्रतिशत धीरे-धीरे बढ़ता रहा । मतदान के बढ़ने का रुझान तो चल रहा है पर कुछ चिंताजनक जो बात है कि पिछली लोकसभा में लगभग 90 करोड़ मतदाता थे, वहाँ पर कुल 65% मतदान हुआ और पहली लोकसभा में 37 करोड़ में से  17.3 करोड़ मतदाता थे। मोटा मोटी समझे तो लगभग 5 गुना मतदाताओं का की संख्या में वृद्धि हुई है परंतु लोकसभा में मतदान का प्रतिशत 46 से बढ़कर आज कुल 60 तक ही लगभग पहुंच पाया है।   यह एक चिंताजनक विषय है एक उभरते लोकतंत्र में जैसे-जैसे समय गुजरता है, वैसे-वैसे लोगों की लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा, विश्वास, जागरूकता और उसमें योगदान करने का झुकाव बढ़ना चाहिए ।  ऐसा इस देश में नहीं हुआ, यह बहुत दुखदाई है । समय के साथ अंदरूनी कलह बढ़ती गयी,  व्यक्तिवाद शुरू होता गया और क्षेत्रीय दलों ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया ।  मेरे व्यक्तिगत विचार से क्षेत्रीय दलों का आगे आना बुरा संकेत नहीं है राष्ट्रीय कार्यों के लिए उनका योगदान, सीमित रहेगा क्योंकि उनकी निगाह मात्र अपनी मतदाता पर ही रहेगी ।

अब आप यह भी समझें कि समय बदलने के साथ साथ राजनैतिक दलों में वृद्धि हुई । 1951 के लोकसभा चुनाव में 53 राजनीतिक दल 1971 तक इसमें कोई खास वृद्धि नहीं हुई  1957 और 1962 और 67 के चुनावों में राजनीतिक दलों में कम ही पाई गई यहां तक के 1967 में कुल 25 राजनीतिक दल थे । 1971 में बहुत फिर से 53 दल चुनावी मैदान में थे ।  पर राजनीतिक दल कि संख्या 1985 तक फिर घटकर 42 रह गया और 1985 के बाद वृद्धि की दर ऐसे आगे बढ़ी कि 2014 तक आते-आते 465 राजनीतिक दल चुनाव में लड़ने के लिए तैयार हो गया । और 10 अप्रैल 2019 तक  के समाचार के अनुसार आज, देश मे 7 राष्ट्रीय दल, 36 प्रादेशिक दल, 329 क्षेत्रीय दल और अन्य 2044 दल अपने आपको चुनाव आयोग में पंजीकृत करा चुके हैं ।   आज यह बहुत अच्छा संकेत नहीं है, क्योंकि जितने भी नए राजनीतिक दल आ रहे हैं वह किसी नई विचारधारा के साथ नहीं आ रहे हैं, बल्कि बहुत से थे तो ऐसे हैं जो किसी एक राजनीतिक दल में थे,  उनको वहां पर चुनावी उम्मीदवार नहीं दिया गया तो उन्होंने अपना नया राजनीतिक दल बना दिया। 465 राजनीतिक दलों के होने के बावजूद भी हमारे देश में 20 नीतियां तक नहीं है जिन पर राजनीतिक दल विचार विमर्श कर सकें । उभरते लोकतन्त्र में स्वतन्त्रता के समय से कई  कठिनाइयाँ थी । परंतु दुर्भाग्य से  इनमें से कुछ भी राजनैतिक मुद्दा नहीँ बन पाया है । विश्व में जितने भी सफल लोकतांत्रिक देश है, वहाँ पर नीतियों के कारण दल है ।  एक विशेष प्रकार की नीति को ले कर दल जनता के बीच में जाएगा । किसी विशेष मुद्दे को लेकर चुनाव के लिए मत दाताओं के बीच में क्या आएगा, अगर  आपको उनका सुझाव अथवा उनकी नीतियां पसंद है तो आप उनको चुन लीजिए । नहीँ तो दूसरा दल किसी अन्य नीतियों के साथ है,  मतलब यह हुआ कि हमारे पास यदि 465 दल है तो कम से कम 465 नीतियों पर विशेष चर्चा होनी चाहिए पर तो दुर्भाग्य है यहां पर 20 भी ऐसे मुद्दे नहीं है जिन पर सरकार में  चर्चा हो सके और वह चुनावी मुद्दा बने । यहां पर राजनीतिक मुद्दा इस हद तक तक टूट चुका है कि एक दूसरे पर गाली करो, कभी खानदान के लिए कभी व्यक्तिगत रूप से पत्नी को लेकर ।  

राजनीतिक दलों में, इतना अधिक वैमनस्य हो गया कि बिना नीतियों के ही अलग अलग उम्मीदवार लड़ने के लिए आते हैं,  और वह हमें जातिवाद में बांटते  हैं। मेरे मित्र अनूप खन्ना ने एक बात कही थी, कि 5 वर्षों तक हम भूल जाते हैं कि हम समुदाय या जाति से हैं, जैसे ही जैसे ही चुनाव आता है 5 वर्ष बाद राजनीतिक दल पास आकर जाति, वर्ग और न जाने कितने टुकड़ों में हमें बाँट कर चले जाते हैं । अब तो स्थिति यहां तक हो चुकी है,  जैसे ही कोई चुनाव का समय आएगा,  कोई ना कोई पुराना मुद्दा उखाड़ दिया जाएगा , जेसी 1984 का सिख दंगा, राम मंदिर, इत्यादि मुद्दे जिनका देश की प्रगति से कोई विशेष लेना देना नहीं है, प्रमुख बन जाएंगे। देश में कितनी बेरोजगारी है, गरीबी है, कितनी बीमारियां हैं, यातायात व्यवस्था किस प्रकार की हैं, कितने लोग अशिक्षित हैं, इन पर कभी चर्चा नहीं होती।  

इसमें कहीं न कहीं भारतीय मतदाता भी दोषी है ।  मतदाता को मत देने का अधिकार तो मिल गया, परंतु उसे मत क्या सोच कर देना चाहिए, उस पर कोई शोध नहीं है। मतदाता सिर्फ और सिर्फ मात्र कितना देखता है, कि क्या यह उम्मीदवार मेरी जाति का है,  या किस व्यक्ति से मुझे क्या लाभ  हो सकता है? मुझे क्या मुफ्त मिल सकता है,  सरकार मुझे कहां आरक्षण देगी। लेकिन समझने की बात यह है आपको कुछ भी मुफ्त में दिया जाएगा, तो उसका पैसा यदि आप से नहीं लिया जाएगा भारत के किसी और वर्ग से लिया जाएगा। क्योंकि सरकार है तो कंगाल हैं, धन तो उनके पास है नहीं तो फिर इस प्रकार की बांटने की आदत के लिए  धन कहां से आएगा।

अब आप यह भी जानिए चुनावी क्षेत्र में प्रति चुनावी क्षेत्र कितने उम्मीदवार हैं 1951 के चुनाव से लेकर 1977 के चुनाव तक लगभग औसतन 5 या 6 उम्मीदवार होते थे । यह संख्या 1996 के अंदर बढ़ कर  औसतन 26 उम्मीदवार प्रति चुनावी क्षेत्र पहुंच गया 2014 में यह फिर घटकर 15 के आसपास आ गया। अब समझने कि बात है 15 उम्मीदवार क्या 15 नीतियों के साथ हमारे पास आते हैं, या हमें कुछ बहला-फुसलाकर अपने लिए वोट मांगते हैं। जो व्यक्ति जीतता है उसे मत हम ही देते हैं, हमें हर राजनीतिक दल से अपराधी प्रवृत्ति के उम्मीदवार को हटाने की अपेक्षा है ।  परंतु सत्य है है हम उसे ही जिताते भी तो हैं । तभी तो  राजनीतिक दल ऐसे को  भेजते हैं । स्वच्छ छवि के उम्मीदवार अगर हमको चाहिए, तो  मतदाताओं को इतना जागरूक होना पड़ेगा कि मेरे लिए मैं उसी को मत दूंगा राष्ट्र की बात करेगा। इस राष्ट्र में कितने टुकड़ों में मतदाताओं को बांटा गया अब समय है टुकड़ों को समेटने का हर मतदाता यह समझे कि यह कार्य के लिए और मेरी व्यक्तिगत रूप के लिए कितना बेहतर है तभी यह लोकतंत्र सुदृढ़ हो पाएगा ।

मारी सरकारी और राजनीतिक दल समय समय पर निर्दोषों को अशिक्षितों को,  जिनके पास निवास नहीं है, उनको झांसी दे दे कर उनका मत अपनी तरफ खींचने का प्रयास करते हैं। एक रात को  500 रुपये,  शराब की बोतल और कंबल दे करके मतदाता को खरीदा जाता है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि यदि यह स्थिति चलती रही तो हम अपने लोकतंत्र को एक विश्व का सब बड़ा लोकतंत्र कहने के लिए , जो गर्व करते हैं वह समय आने पर शर्मिंदगी में बदल जाएगा। अब समय आ गया है मतदाता बहुत सोचकर,  यह विचार करें कि हमने मतदान राष्ट्रीय नीतियों पर करना है। और प्रत्येक उम्मीदवार से किस प्रकार की चर्चा करनी है और उस चर्चा में  द्वारा मुझे बेहतर लगेगा उसे ही मत दूंगा। जब तक मतदाता इस विचार को नहीं अपनाएंगे तब तक लोकतंत्र में अपेक्षित उन्नति नहीं होने वाली। हिमाचल प्रदेश का मंडी जिला, एक बहुत है शिक्षित वर्ग का जिला माना जाता है। जहां से भी एक नेता को चुना गया, जो भ्रष्ट था अल्पविराम जिसके ऊपर केस चले और जिसे अदालतों ने दोषी ठहराया। परंतु यहां के लोगों ने समझा कि मेरे घर घर में एक टेलीफोन लगवा दिया है इसके लिए मुझे तो इसे ही मतदान देना है। क्या यह एक परिपक्व राजनीति के अथवा लोकतंत्र के मतदाता की पहचान है। सोचना आपने हैं मैंने है और इस लोकतंत्र को हम ही बदलेंगे।

और अब लेख  के अंत में विचार  करें क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कैसे पड़ा । पहली लोकसभा में 85% से अधिक राष्ट्रीय दलों का योगदान था और क्षेत्रीय दलों का लगभग 7% कुछ निर्दलीय भी थे जो स्थिति कमोवेश 1991- 92 तक चली जिसके बाद से क्षेत्रीय दलों ने अपना प्रसार शुरू किया और 2014  की लोकसभा में क्षेत्रीय दलों का 32% तक हो गया राष्ट्रीय का योगदान मात्र 63% रहा तो इससे आप समझ सकते हैं धीरे-धीरे क्षेत्रीय दलों राजनीति पर अपना कब्जा कर दिया क्षेत्रीय दलों से नुकसान कुछ नहीं है परंतु राष्ट्रीय नीति में क्षेत्रीय दल उतने सक्षम नहीं होते जितनी राष्ट्रीय दल  होते  है बस यही है ईस की कमजोरी है । क्षेत्रीय दिल अपने क्षेत्र के विकास की तो बेहतर सोच रखते हैं हैं परंतु जब राष्ट्रीय नीतियां, विदेश नीति, विदेश नीति या   ऐसे ही कोई राष्ट्रीय नीतियों का प्रश्न है यह क्षेत्रीय दल उतने सक्षम नज़र नहीं आते हैं ।

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