बिहार में बच्चों की मौत के बाद social media पर यह संदेश घूम रहा है कि जब 720 मे से 690 पाने वाला फ़ेल तो 40 अंक पाने वाला डॉक्टर बनेगा तो क्या करेगा , यह संदेश नितांत भ्रामक और मात्र आकर्षण पाने के लिए किया गया है । आइये ज़रा इसके सच को आज की तारीख में समझें । अभी NEET नामक परीक्षा चिकित्सा क्षेत्र में विध्यालय विशेषतया MBBS मे प्रवेश पाने के लिए दी जाती है । इसमे अब जिस प्रकार के संदेश आप देख रहे हैं, पहली बात तो यह पूर्ण सत्य नहीं है और जो भी विषमताएं इस परीक्षा में है उसका मूल कारण आरक्षण से अधिक सरकारी नीतियाँ है जो धनवान विध्यार्थी को पढ़ने का सुअवसर दे सकती हैं यदि आप के पास 70 लाख रुपये है परंतु एक प्रतिभाशाली को प्रवेश नहीं दे सकती । घूम फिर कर बात फिर उसी भूमंडलीकरण की नीतियों पर आ जाती है, जिसके बाद यह शिक्षा का क्षेत्र व्यावसायिक घोषित हो गया ।
90 के दशक तक यह व्यापार न होने के कारण इसमें निजी संस्थानों का योग दान मात्र 28% था और 72% सरकारी विध्यालय थे । समय बदला और आज आप जान कर आश्चर्य करेंगे कि आज 45% सरकारी विध्यालय है और और 55% निजी विध्यालय । सरकारी विध्यालयों के लिए हर प्रदेश मे वहाँ कि सरकार एक प्रतियोगी परीक्षा करती थी और उसमे से उत्तीर्ण विध्यार्थी को उस सरकारी संस्था में प्रवेश मिल जाता था । अब जो निजी संस्थान थे, वह मात्र धन कमाने के लिए आये थे तो प्रारम्भ में उनके प्रवेश करवाने का पूर्ण अधिकार उस विध्यालय की प्रबंधन समिति का था । जो सब जानते थे कि पैसा ले कर उसमें प्रवेश करवा देते थे । अब जब वह धन ही कमाने के लिए आए थे तो फिर तो अच्छे कॉलेज की सीट की बोलियाँ लगती थी और अधिक धन देने वाले को मिल जाती थी ।
फिर बहुत से ऐसे चिकित्सक बन गए जिन को मेडिकल काउंसिल के इम्तिहानों मे कुछ भी नहीं आता था । तब एक बार फिर कुछ समाज सेवियों लोगों के न्यायालय का दरवाजा खटखटाया । फिर सरकार ने जब एक परीक्षा NEET की भी कर दी पूरे देश में तो समस्त निजी संस्थानों को कहा गया कि आपके नई विध्यार्थी को NEET की परीक्षा देनी है और उत्तीर्ण करनी है तभी निजी संस्थान मे यह व्यवस्था लागू की गयी ।
अब आइये यह कैसे ढकोसला साबित हुआ इस को आप अब समझें । सरकार की NEET परीक्षा जिसमें 13 लाख बच्चे बैठते हैं । लगभग 8 लाख उत्तीर्ण बताए जाते है । इसमे से सरकारी कॉलेज मे जाने और निजी संस्थान में जाने वाले कुल एक लाख विद्यार्थी है । अब होता यह है कि जिसे तो सरकारी संस्थान में जाना है राष्ट्रीय सीट मे उस लगभग 600 अंक चाहिए और अपनी प्रादेशिक सीट मे उसे 500 अंक से अधिक चाहिए । तो कोई 690 वाला फ़ेल नहीं होता है । हाँ इतना अवश्य है यदि आपके समान्य वर्ग में 137 और आरक्षित वर्ग मे 107 अंक है तो आप सीट के निजी बाज़ार मे बोली लगाने के योग्य हैं । अब यह मात्र इसलिए होता है कि जिन राजनेताओं और उद्दयोग घरानों नें चुनाव में पैसा दिया है कोई भी राजनेता, उसके विरोध में नहीं जा सकता । दूसरे जिस दिन यह बात सामने आएगी तो आधे से अधिक कोचिंग सेंटर बंद हो जाएंगे ।
सरकार ने अपने नियमों के अनुसार सामान्य वर्ग के आधे विध्यार्थियों को उत्तीर्ण करना है । और इसी प्रकार से आरक्षित वर्ग के लिए 60% विध्यार्थियों को उत्तीर्ण करना है । सरकार का आधिकारिक रूप से यह मानना है इससे समाज में विषमता कम होगी । इस दलील से कितना समाज में बदलाव होगा या हो रहा है ? आप देख सकते हैं । इसके अतिरिक्त और महत्वपूर्ण बात है कि इसके कारण ही विध्यार्थी विदेशों में जा कर MBBS करना पसंद करते हैं । प्रतिवर्ष 10000 से अधिक विध्यार्थी विदेशों में जाते हैं । हर छात्र पर लगभग 60 लाख का खर्चा अभिभावकों को खर्च करना पड़ता है । इस आंकड़े से 6000 करोड़ कि विदेशी मुद्रा उन विध्यार्थियों पर खर्च होता है, जो या तो वापिस आएंगे ही नहीं और यदि आ भी जाएँ तो वह भारत सरकार द्वारा निर्धारित परीक्षा (जिसके बाद वह भारत में डॉक्टर की तरह काम कर सकें) मे 15% से अधिक पास नहीं होते हैं । अब सरकार यह नियम भी बना रही है कि विदेशों से पढे MBBS वालों को यह परीक्षा नहीं देनी पड़ेगी । क्योंकि यदि इस परीक्षा में कम लोग उत्तीर्ण होते है तो भारतीय विदेशों में पढ़ना बंद कर देंगे । अब आप यह समझें कि यह नीति भारतीयों के लिए बनाई जा रही है या विदेशों कॉलेज में पढ़ने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए ।
विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, 752725 अर्थात लगभग 7.5 लाख विध्यार्थी देश से बाहर प्रति वर्ष पढ़ने जाते हैं । जिन पर विदेशी मुद्रा के नाम पर 30 लाख से 40 लाख प्रतिकर्ष प्रति विध्यार्थी खर्च आता है । इस प्रकार से 3 लाख करोड़ का खर्चा आता है, इसमें से लगभग आधा विध्यार्थी वहाँ पर कमा कर पूरा कर लेते है । फिर भी लगभग 1.5 लाख करोड़ तो भारत की विदेश मुद्रा से ही जाता है । ध्यान रहे कि हर सरकार पर प्रतिवर्ष 7 लाख करोड़ का कर्जा लेने का दबाव रहता है । इतना धन भारत की सरकार को अपने खर्चे के लिए कम पड़ता है । इसके साथ ही जो विध्यार्थी एक बार विदेश जाता है, उनमें से 80% उन देशों की अर्थव्यवस्था में ही खप जाते हैं । सरकार और भारतीय मात्र उनके डॉलर को अपने बैंक में जमा करवा कर उसे विदेशी मुद्रा भंडार मे बता कर प्रसन्न होते हैं ।
बस अब आप समझ सकते हैं कि सरकार क्यों नए मेडिकल कॉलेज अथवा और नए शिक्षण संस्थान नहीं खोल सकती । एक तो स्वयं के पास धन नहीं है और दूसरे विदेशी ताकतों का प्रभाव ।
आप इस पर ध्यान दें कि बुद्धि कौशल हमारा, धन हमारा, संतान हमारी पर हम उसे तैयार कर रहे हैं, विदेशियों के लिए । और यहाँ तक भारतीय अभिभावक इस पर प्रसन्न भी होते है और गर्व से अपने बच्चे के विदेहों में होने की बात बताते हैं । पर हमारा समाज मंदिर मस्जिद, जादू टोटकों में ही व्यस्त है । इसके बाद जब कोई विदेशों में विपत्ति आ जाए तो सरकार से मांग है कि आप हमारी मदद करें । यह सरकार का दायित्व है । कितनी हास्यास्पद स्थिति है !