10 लाख विध्यार्थी और 20000 MBBS सीटें ! कोचिंग उदद्योग 22 लाख करोड़ ! आइये सच जाने !

क्या आप जानते है कि एक साल या दो साल के लिए ड्रॉप करने के बाद भी आपको एमबीबीएस  मे प्रवेश क्यूँ नहीं मिलता है ? आइये इसके मूल को समझें । सर्व्प्राथम तो आप यह समझे कि पूरे भारत वर्ष मे कुल मिला कर एक लाख से अधिक सीट ही नहीं है । अब पूरे भारत मे 125 लाख विध्यार्थी हर वर्ष  कक्षा 12 की परीक्षा देते हैं जिसमे से लगभग (यदि आप CBSE का आंकड़ा) ले तो 54% भौतिक शास्त्र लेते हैं । इसी को यदि देश मे लागू किया जाये तो लगभग 68 लाख विध्यार्थी विज्ञान संकाय के है जबकि गणित लगभग 64 लाख विध्यार्थी लेते हैं और 23 लाख विध्यार्थी जीव विज्ञान संकाय के हैं ।

एक तो मूलभूत  प्रश्न हमारी शिक्षा व्यवस्था से  है कि हमारा समाज तथाकथित रूप से शिक्षित क्यों हो ? हमारी शिक्षा व्यवस्था एक नौकरी या रोजगार देने के  लिए ही मानी जाती है । हो सकता है कि कई समाज के प्रतिष्ठित लोग इस बात पर सहमत नहीं हों, परंतु एक विध्यार्थी से पूछा जाये तो वह इसी के लिए पढ़ना चाहता है । कक्षा 10 तक आते आते यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में भर जाता है या यूं कहिए समाज द्वारा भर दिया जाता है, कि आपकी शिक्षा आपके रोजगार के लिए है । अब रोजगार क्या है ? इस पर भी विवाद है,  स्वरोजगार हमारे यहाँ शिक्षित व्यक्ति का सपना होता ही नहीं है । रोजगार मतलब एक नौकरी की व्यवस्था । हर वर्ष 1.2 करोड़ विध्यार्थी पढ़ लिख कर बेरोजगारी की पंक्ति में खड़े हो जाते हैं । आज भी सरकारों से अपेक्षा  है कि सरकार नौकरी प्रदान करे, बिना इस पर विचारे कि नौकरी आए कहाँ से ? न तो सरकार के पास धन है पगार या मान धन देने के लिए और न ही सरकार को इतने व्यक्तियों की ज़रूरत है ।

अब बात करें विज्ञान संकाय के छात्रों कि, क्यूंकी यहाँ पर शिक्षा रोजगार के नाम पर होती है, इसीलिए जितने छात्र भी भौतिक शास्त्र के साथ गणित वाले हाँ उनसे यह अपेक्षा है कि वह इंजिनीयर ही बनेगा और जो भी छात्र जीव विज्ञान वाले हैं उनको चिकित्सक ही बनना है । स्थिति यहाँ तक यदि कोई छात्र कक्षा 12 में विज्ञान संकाय के अतिरिक्त, वाणिज्य या कला संकाय में प्रवेश ले तो मान्यता यही है कि उसके अंक कम आए होंगे । यहाँ तक कि विध्यालय प्रशासन भी अभिभावक के साथ मिल कर विध्यार्थी को समझाने का प्रयास करते है कि अभी भी समय है, विज्ञान  संकाय को लेलो क्योंकि तुम्हारे कक्षा 10 मे अच्छे अंक आए हैं । विध्यार्थी की अभिरुचि का 90% से अधिक विध्यार्थियों के लिए कोई औचित्य नहीं है । अब इसके मूल को समझें तो अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षा उस पर सही माने में लाद देते हैं । अगले दो वर्षों मे विध्यार्थी भी अपने आपको डॉक्टर या इंजीनियर मान लेता है और यही से उसकी मुश्किल शुरू होती हैं । अब न तो अभिभावक और न ही विध्यार्थी यह मानने को तैयार है कि 12 लाख में से वह ऊपर के एक लाख में नहीं है । आंकड़ों से समझें तो 1 लाख विध्यार्थी बिलकुल ठीक सोच रहे हैं परंतु बाकी के 11 लाख एक भ्रम में जी रहे होते हैं । उस भ्रम को बरकरार रखने में सबसे अधिक योगदान कोचिंग संस्थानों का है ।

समय के साथ यह हुआ कि विध्यार्थियों को कक्षा 11 में ही दूसरे शहरों में जाने का रुझान हो गया, इससे कुछ प्रतिशत विध्यार्थियों का तो भला हो गया और शेष कोचिंग केन्द्रों का भला हुआ । परंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या आप किसी भी बर्तन में उसकी क्षमता से अधिक जल भर सकते हैं ।  यदि उत्तर नकारात्मक है तो उस विध्यार्थी को इसका सपना क्यों दिखाया गया है ? अभिभावकों को क्यों धोखे मे रखा गया है ? आइये इसके उत्तर के लिए कुछ इन के इतिहास को जानना पड़ेगा ।

लगभग 90 के दशक मे जब सब जगह भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार की आँधी आई तो शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा । तब विकासशील देश भारत को विश्व बैंक नें 7000 करोड़ देने का वादा किया । तभी से भारते के औद्धयोगिक जगत ने भी इस ओर आने का कदम उठाया । और बड़े बड़े उद्योगपतियों को इस ओर आने के लिए सरकार ने भी प्रेरित किया । इस समय से पहले शिक्षा एक सामाजिक सेवा होती थी और अब यह उद्दयोग की श्रेणी मे आ गया है । और जब यह एक व्यावसाय से रूप मे घोषित कर दिया गया, तो यह मात्र धनोपार्जन का जरिया बन कर रह गया है । जिसमें हर संस्थान और विध्यालय के लिए अभिभावक और विध्यार्थी एक ग्राहक हैं । और इसी लिए ग्राहक को लुभाने के लिए, हर प्रकार के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं । क्या विज्ञापन, क्या प्रचार के नए नए साधन इत्यादि । अब सबसे अधिक धन कमाने की श्रेणी मे उच्च विध्यालय आने वाले थे । अब उच्च विध्यालय यानि विश्वविध्यालय के पठन पाठन मे अब तक मात्र सरकारी विश्वविध्यालय और संस्थान थे । और वह स्नातक विषय पढ़ाते थे, तब यह पाया गया कि पढे लिखे बेरोजगारों की संख्या बढ़ी जा रही है तभी से व्यावसायिक विषय यानि इंजीनियरिंग और मेडिकल की देश को आवश्यकता आन पड़ी । उसमे अच्छी कमाई होने के कारण सबसे पहले उद्दयोग जगत आ गया । अब सरकारों के पास निजी विध्यालयों को इंजीनीयरिंग अथवा मेडिकल की अनुमति देनी थी । उस समय भारत मे लगभग 30,000 कुल इंजीनीयरिंग की और 16,000 मेडिकल की सीटें थी । इंजीनीयरिंग के क्षेत्र मे कॉलेज शुरू करना आसान था, उसमें आपको मात्र प्रयोगशालाएँ और कक्षाओं की आवश्यकता है, जबकि एक मेडिकल कॉलेज के लिए 300 बिस्तर का अस्पताल भी आवश्यक है, प्रयोगशालाओं और कक्षाओं के अतिरिक्त । अब यदि अस्पताल होगा, तो रोगी होंगे तभी तो अस्पताल जीवित रहेंगे । इसके लिए जब आपका अस्पताल चलने लगे तब आप मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को बुलाये और वह प्रमाणित करेंगे की यहाँ सम्पूर्ण  सुविधाएं हैं तभी मेडिकल कॉलेज खोलने की अनुमति मिलती है । अब यहीं पर दवा कंपनियों का भी प्रभाव समझें । देश मे आज दवा का उद्दयोग 1.4 लाख करोड़ का हो चुका है । भारत सरकार का बजट स्वास्थ्य मंत्रालय को 62000 करोड़ का है ।  अब सरकार और विदेशी निवेशक यहाँ से दवा बना कर निर्यात भी करते हैं । सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है स्वास्थ्य बजट बढ़ने को हमारे अर्थशास्त्री, एक सकारात्मक विकास के रूप मे देखते हैं । आप सोचिए अधिक दवा  का बिकना बीमार देश बताता है या स्वास्थ्य देश ।

अब आप 1990 के लगभग का आंकड़ा समझें, तब देश मे 30000 इंजीन्यरिंग की सीटें थी जो वैश्वीकर्ण के बाद 2007 तक 7 लाख और फिर 2017 तक 18 लाख और अब 2019 मे 15 लाख तक आ गयी है ।  सितंबर 2017 तक 800 इंजीनीयरिंग अपने को बंद करवाने के लिए आवेदन दे चुके थे, जिसमे से 65 को तत्काल प्रभाव से अनुमति मिल गयी । बाकी सब को निर्देश  दिये गए कि एक बार आप कोशिश करें और जिन विध्यार्थियों को आपने प्रवेश दिया है उनके स्नातक होने तक आप कॉलेज चलिये और नए प्रवेश तत्काल प्रभाव से बंद कर दीजिये ।

बार बार समस्त उद्दयोग जगत, और देश के शिक्षाविद और समाज शास्त्री कह चुके थे कि इस देश मे 10% की विकास दर के लिए भी हमें मात्र एक लाख से अधिक इंजीनीयर कभी नहीं चाहिए । परंतु सरकारों ने इस पर विचार किए बिना अनुमति देने बरकरार रखा । इसका मूल कारण था कि अधिकांश कॉलेज के प्रबन्धक राजनेता ही थे । अब पहले 60% अंक से कम वाले विध्यार्थी को प्रवेश वर्जित था, जब प्रवेश पूरे नहीं हुए अर्थात पूरा पैसा कमाने में राजनेता सफल नहीं हुए तो इस को 50% तक ले आए । आज स्थिति यह है कि यदि आपके 40% से अधिक अंक है तो आपको इंजीनीयरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल जाएगा । परिणाम अन्त में हुआ कि हर वर्ष लाखों इंजीनीयर अब बेरोजगारी  की कतार में खड़े होता हैं । पहले वहाँ मात्र कला संकाय वाले स्नातक होते थे । बेरोजगारी  वही की वही थी परन्तु  अंतर यह था कि अब बेरोजगार अपने जीवन के 4 साल और माता पिता का 10 लाख रुपये खर्च करके बेरोजगार बना, पहले उसे मात्र 10 हज़ार रुपये और तीन वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी । हुआ यह कि बेरोजगारी की पंक्ति में आने में एक वर्ष और 10 लाख रुपये लगने लगा ।

इस स्थिति का सबसे अधिक लाभ तब कोचिंग उद्दयोग ने उठाया, सब जगह यह बात फैलाई गयी कि यदि आप आईआईटी से पढ़ कर निकलेंगे तो  आपका अवश्य भला होगा  और नौकरी मिल जाएगी । यह भ्रम आपको सबसे अधिक कोचिंग सेंटर फैलाते हैं । दरअसल जो आईआईटी से निकलते उनमें भी बेरोजगारी है । 2017 के आंकड़ों के अनुसार मात्र 66% इच्छुक विध्यार्थियों को नौकरी मिली जबकि 2016 में यह आंकड़ा 79% था । इसके प्रमाण के रूप में आप देख लीजिये सबसे अधिक कोचिंग सेंटर में आपको आईआईटी से पास किए विध्यार्थी ही हैं । अब जब एक आईआईटी पास करके पढ़ा ही रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण उसकी बेरोजगारी ही है । यदि ऐसा न होता तो वह आईआईटी मे यदि पाठ्यक्रम लेता भी तो एमएससी करता न कि बी टेक । कमोवेश यही स्थिति सभी एनआईटी की भी है ।

अब आइये विश्लेषण करें मेडिकल कीं पढ़ाई की, यहाँ पर भी 90 के दशक में 102 कॉलेज सरकारी थे और 41 निजी संस्थान थे। सीटों से देखें तो 11800 सरकारी और 4785 निजी संस्थानों के पास थी, अर्थात 72% सरकारी संस्थान थे और बाकी 28% निजी संस्थान थे । 2014 में देखें तो लगभग 385 कॉलेज मे से सरकारी 176  है यानि सरकारी संस्थान का योग दान  45% औए बाकी निजी संस्थान का । 2019 का आंकड़ा देखें तो 470 कुल संस्थानों में 216 सरकारी हैं मतलब 46% सरकारी और 54% निजी संस्थान हैं । सीटों की बात करे तो एम्स को जोड़ कर 34792 सरकारी हैं और 60295 निजी हैं अर्थात सीटों के अनुसार मात्र 36% सरकारी हैं और 64% निजी संस्थानों के पास । सरकारी संस्थान के अंदर आपका शुल्क बहुत कम है जिसके कारण आप आज भी 5 लाख रुपये से अधिक नहीं देते हैं वही पर निजी संस्थानों में यह खर्चा 40 लाख से एक करोड़ तक है ।

अब आप अभिभावक और छात्र की भावना समझें, उन सबका यह सोचना है कि 3 -5 लाख एक वर्ष में लगा कर यदि विध्यार्थी कम से कम 30 लाख रुपये बचा सकता है, तो इस प्रयोग में कुछ हानी नहीं है ।  बस इसी इच्छा को सभी कोचिंग संस्थान अच्छे से भुनाते हैं ।  सब संस्थान आपको अपने चयनित विध्यार्थी बताएँगे लेकिन कोई भी यह नहीं बताता कि कितने विध्यार्थी उसके पास पढ़ने आए हैं ? लगभग 99% संस्थान में आपके विध्यार्थी को, चाहे वह कितना ही कम अंक प्राप्त किए हो, तथाकथित अच्छे से अच्छे संस्थान में प्रवेश मिल जाएगा । कोई भी संस्थान आपके विध्यार्थी को यह नहीं कह सकता कि आपका प्रवेश बहुत कठिन है । सब के सब कहेंगे थोड़ा मेहनत करें तो यह निकाल जाएगा ।  अब यह कथन ” थोड़ा मेहनत करें तो यह निकाल जाएगा” असत्य  नहीं है परंतु इसकी प्रायिकता कितनी है ? पर कितनी भी कम हो इसके नाम पर धन तो आएगा ही । यही कोचिंग संस्थान चाहते हैं ।

कितनी सीट है और आपकी अभी कि तयारी कैसी है इस पर कोइ बात नहीं करेगा । यहाँ कुल्लू में मैंने देखा कि 180 अंक प्राप्त किए विध्यार्थी को भी तीसरी बार एनईईटी की परीक्षा देने के लिए तैयार कर दिया गया । जिसके लिए कम से कम 550 अंकों की आवश्यकता है । यदि अभिभावकों से बात करिए तो एक दो अपवादों की ही चर्चा करेंगे कि अमुक व्यक्ति का हो गया यो मेरा भी हो सकता हैं । अरे आप समझते क्यों नहीं एक धीरुभाई अंबानी ने पेट्रोल पंप पर काम करके एक साम्राज्य बना लिया पर ऐसे कितने व्यक्ति पैदा हुए हैं 100 वर्षों में जिन्होने पेट्रोल, पंप पर काम करके पेट्रोल पम्प भी खरीदा हो और तो कुछ छोड़ दीजिये ।

अब इसी बात को एक और ढंग से समझें कि सरकारी मेडिकल कॉलेज में समान्य श्रेणी में 20000 सीटें है । और समान्य सीट पर प्रवेस्श परीक्षा मे बैठने  वाले लगभग 10 लाख है । अर्थात प्रति 500 विध्यार्थियों पर एक सीट । अब विध्यार्थी यह तय करे कि अपने आसपास के विध्यार्थियों के यदि आप इस अनुपात में अंक प्राप्त कर रहे हाइन तो ही आप सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पा  सकते हैं । आपको लग रहा होगा कि कितनी भयावह स्थिति है ? परन्तु यही सत्य है आप स्वीकार करें या नहीं । इस बात को कोई आपको कोचिंग सेंटर वाले भी नहीं बताएँगे । यहाँ तक कि जब तक मैं भी सेंटर से संबन्धित था । इस बात को इतनी दृढता से नहीं कहता था । कारण स्पष्ट है कि लोग विध्यार्थी और अभिभावक इस सुनने को ही तैयार नहीं है ।

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