लोकतान्त्रिक संप्रभु गणराज्य या समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य ? भारत क्या है ?? आइये संवैधानिक बदलाव समझें !

भारत देश है या राष्ट्र ? लोकतान्त्रिक संप्रभु गणराजय है या समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य ? इसको समझने के लिए आइये पहले राष्ट्र और देश का अंतर समझें समान्य भाषा में हम दोनों को एक मान लेते हैं। राष्ट्र वह (व्यक्तियों) का समूह है जो सांस्कृतिक पहचान, भाषा वंश इत्यादि साझा करते हैं । वहीं देश शब्द का अर्थ दिशा से है, यानि भौगोलिक सीमाओं के संदर्भ में । पुरातन काल में भारत एक राष्ट्र रहा है । आप याद करें जिन्होने महाराजा राम के अशमेध यज्ञ के घोड़ों को स्वीकार किया, उन्होने राम की सत्ता समझी परंतु अयोध्या ने उन पर राज्य नहीं किया । सब अपनी संस्कृति के साथ रहे । जिन स्थानों पर उनके अश्व को रोका गया, उनके ही पुत्र द्वारा वहाँ पर युद्ध होने की बात है । राम ने लंका पर विजय प्राप्त की पर वहीं पर विभीषण का राज्याभिषेक किया गाया । अर्थात राम ने उस राज्य का विलय अपने राज्य में नहीं किया । तो राष्ट्र में सब संस्कृति साझी है और एक का दूसरे पर अधिकार नहीं है । सबको समान अधिकार है । वहीं देश एक भौगोलिक सीमा से बना है । वहीं पर सब एक दूसरे के विचारों का स्वागत भी करते हैं ।

अब आइये संप्रभु गणराज्य को समझें । संप्रभु शब्द में भी अधिकार न हो कर स्वतन्त्रता है। यह पूरा संप्रभु लोकतान्त्रिक गणराजय था । अर्थात इसकी संसद सर्वोपरि परन्तु साथ मे ही जो लोग निर्वाचित हो कर आते हैं, वह लोकतान्त्रिक तरीके से आएंगे । यह प्रारम्भिक संविधान था ।उस समय हमारे संविधान मे धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था । तब बिना कहे यह माना जाता था कि, क्योंकि पाकिस्तान की संरचना इस्लामिक धर्म के आधार पर हुई  और भारत मूलत : हिन्दू बहुल राष्ट्र था परन्तु हिन्दू देश नहीं । अब भारत हिन्दू संस्कृति का प्रतीक था इसलिए सभी मतों और धर्मों को जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर केन्द्रित था ।  अब तथाकथित हिन्दू राष्ट्र होने के कारण मुस्लिम संप्रदाय के लोग यहाँ अल्प संख्यक माने जाते थे, इसलिए यहाँ पर समान नागरिक संहिता नहीं थी । इसका दूसरे शब्दों मे अर्थ था कि हर संप्रदाय के लोग लोग अपनी मान्यताओं के साथ यहाँ रह सकते थे और रहते भी थे ।

इस राजनैतिक ढांचे में मुख्य बदलाव आया जब देश में वामपंथी सोच अपने पैर पसार रही थी । 70 के दशक तक वामपंथी विचारों के टकराव के कारण, इन्दिरा गांधी नें अधिक लोकलुभावन निर्णयों को लिया तब की काँग्रेस ने 12 नवंबर 1969 को इन्दिरा गांधी को काँग्रेस से निष्कासित कर दिया । तब इन्दिरा गांधी ने अपने समर्थकों से मिल कर नए दल का गठन कर लिया, इसका चुनाव  चिन्ह बना गाय और बछड़ा । उससे पहले दो बैलों की जोड़ी मुख्य काँग्रेस का चुनाव चिन्ह था । उस समय आपातकालीन समय के समय इन्दिरा सरकार को वामपंथी दलों का समर्थन मिला । यही इस देश में पहली अल्पमत की सरकार बनी । आज की अल्पमत की सरकार को समर्थन देने वाले दल कुछ नए मंत्री पद और विभाग की मांग या कहिए सौदा करते हैं ।

उन वामपंथी दलों ने उस समय समर्थन के लिए, न कोई विभाग मांगा न ही अपने मंत्री बनाए परंतु मात्र संसद के बयालीसवें संशोधन के अंतर्गत  यह शब्द “धर्म निरपेक्ष” डाल कर,  भारत के “लोकतान्त्रिक संप्रभु गणराजय” के स्थान पर “समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य” करके राष्ट्र के संसदीय प्रस्तावना में बदलाव कर दिया । दरसाल उसी समय यह “अल्प संख्यक” शब्द का आस्तित्व समाप्त हो गया परन्तु राजनैतिक लाभ के लिए ही इसका प्रयोग सरकारें आज तक करती रही हैं । अब आप दोनों के अंतर को समझें और समझिए कि कैसे दोनों एक दूसरे के विरोधी है और भारतीय संविधान और संस्कृति पर सही नहीं हैं । लोकतान्त्रिक संप्रभु गणराजय में संसद की भूमिका प्रथम है और उस समय कैसे विधि विधान रखने है यह उस देश में निर्वाचित उम्मीदवार तय करेंगे । इसके लिए आप चाहें तो हर वर्ग विशेष को विभिन्न दायरों में रख सकते हैं, और उदाहरण के लिए आरक्षण का कानून वर्षों से वंचित समाज के लिए दिया गया । आप मुस्लिम, पारसी इत्यादि को अलग अलग अधिकार दे सकते हैं । अब अगर आप धर्मनिरपेक्ष है तो आपके पास देश का एक ही विधि विधान होगा । एक ही आचार संहिता और समाचार नागरिक संहिता देश में रहेगी । दुर्भाग्य से भारत राजनीति के कारण न तो पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष बन पाया और न ही पूर्णतया लोकतान्त्रिक संप्रभु गणराज्य ।

अब राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर, नागरिक संशोधन बिल, समान नागरिक आचार संहिता इत्यादि की मांग राजीव गांधी के समय के शाहबानों केस के समय में सबसे अधिक चर्चा में रही । तब की सरकार ने सैद्धांतिक रूप से इसे स्वीकारा । यह कहना भी गलत न होगा कि सभी सरकारों ने इसे स्वीकारा परन्तु लागू करने से डरती रहीं । सबको अपने मतदाताओं को लुभाना था ।

अब लगता है कि “समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य” का नाम देना, यह एक सोची समझी नीयत के तहत किया गया था । इसी समय में नया शब्द “नकसलवाद” आया । नक्सल शब्द का उद्गम “नकसलबाड़ी” नमक स्थान से था । यह स्थान पश्चिम बंगाल में है । वहाँ पर हथियार उठा कर पहली बार पूंजीवाद का विरोध किया गया, उन्होने यह माना कि शोषित वर्ग के उत्थान के लिए हथियार उठा कर सरकार का विरोध करना एक उचित कदम है । अस्सी के दशक मे ही आज के चर्चित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई । इस विचार का समर्थन करने वाले भारत देश के “अहिंसक आंदोलन” के स्थान पर हिंसक प्रदर्शनों में विश्वास रखते हैं । परन्तु उनकी हिंसा मुख्यत, या तो सामंतों के विरोध में है या सरकार के विरोध में । फिर भी नक्सल वाद कम से कम खुल कर हिसक विरोध प्रकट करता है । उस शत्रु से लड़ना कठिन है जो स्वयं सामने न आ कर, छद्म युद्ध करता है । चाहे कश्मीर का आतंकवाद हो या अभी के उग्र प्रदर्शन देखिये । इस विचार धारा की मुख्य विडम्बना है कि वह स्वयं को पूर्णतया सही मानते है तथा बातचीत और समझौतों में विश्वास नहीं रखते ।

अगले अंक में इसका दूरगामी प्रभाव देश की व्यवस्था पर :

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *