पितृ दिवस पर विशेष ! प्रचुर मात्रा के धन के आगे बौनी होती हुई हमारी हार्दिक भावनाएं ! आइए समझें

पितृ दिवस पर विशेष ! धन के आगे बौनी होती हुई भावनाएं !

अंग्रेजी जून के महीने के तीसरे रविवार को, बहुत वर्षों से पितृ दिवस फादर्स डे के नाम से मनाया जाता है ! अगर हम इस के इतिहास को जानने की कोशिश कर, इसकी शुरुआत किसी दूसरे रूप में 15 वीं शताब्दी के आसपास हुई थी । परंतु जिस रूप में इसका प्रारूप आज विद्यमान है, इसकी शुरुआत 1910 में अमेरिका मे हुई थी । इस दिवस की कल्पना अधिकांश पश्चिम देशों से हुई है । क्योंकि पश्चिम के देशों में निर्धनता के कारण लोग अपने बच्चों को, जिन्हें वह पाल नहीं सकते थे स्थानीय चर्च के हवाले कर देते थे । और वर्षों तक पादरी बच्चों को पालते थे इसी कारण से पादरी को स्वयं के विवाह का अधिकार नहीं था । अभी वहां से मातृ दिवस और पितृ दिवस की परिकल्पना हुई । जिसके अनुसार वर्ष में एक दिन वह अपने पिता से मिले, अथवा पिता के प्रति कृतज्ञता माता के प्रति स्नेह अर्पित कर सकें । पुराने समय में तो शायद उनको पता भी नहीं होता था कौन उनके माता-पिता है । बहुत से पश्चिम देशों में आज भी यह स्थिति है ।

कालांतर में इसी प्रथा को व्यवसायिक रूप दे दिया गया, जिसमें भावनाओं का स्थान महंगे उपहारों ने ले लिया । और यह मेरे विचार से दिवस की विफलता है । यदि आप भौगोलिक परिवेश में देखने कोशिश करेंगे, तू विकीपीडिया के अनुसार, बहुत से देश अलग-अलग समय पर इस दिवस की परिकल्पना करते हैं । परंतु एशियाई महाद्वीप के लोग, पश्चिमी संस्कृति को मानते हुए या यूं कहिए उसका अनुकरण करने में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हुए, इसे पश्चिम देशों का जून का तीसरा रविवार ही मानते हैं ।

यही विकिपीडिया, आज की तारीख में भी कहता है कि भारत में इस पितृ दिवस का कोई पुराना इतिहास नहीं है, पितृ दिवस मातृ बड़े-बड़े शहरों में अपने पिता को और आदर देने के लिए मनाया जाता है । अब यहां पर यह प्रश्न उठता है कि भारत में पितृ दिवस क्यों नहीं ? इसी के साथ भारत में मातृ दिवस की परिकल्पना भी नहीं है । क्योंकि भारतीय परंपरा के अंदर माता-पिता हमेशा हमारे साथ हैं, हमेशा हमारे पूज्य  हैं । इसलिए कोई विशेष दिन हमें उनका सत्कार करने के लिए अथवा स्नेह दर्शाने के लिए नहीं चाहिए । परिवार का जो जो सदस्य हट जाता है, उससे स्नेह के लिए  यहां विशेष दिवस रहे हैं । जिसका के उदाहरण आज भी रक्षाबंधन और भाई दूज के रूप में देख सकते हैं ।

मुझे याद आता है, कविवर कुमार विश्वास ने बच्चों के लिए कुछ कविताएं लिखी, और उनके स्वयं के कथनानुसार, एक बच्ची  का वर्णन किया गया, जो अपनी दादी के घर जाती है और वहां कुछ क्रियाकलाप होते हैं। कुमार विश्वास कहते हैं, कि रात को मेरे मन में विचार आया, बच्ची यदि दादी के घर जा रही है, इसका अर्थ यह हुआ कि दादी उसके पिता के नहीं रहती। और यह एक अच्छा संदेश नहीं देगा । तो दादी बच्चों के साथ ही रहती है । इसलिए उन्होंने अपनी कविता को बदल कर के, बच्ची को नानी के घर भेजा । और कविता को संपूर्ण किया । आप एक कवि की कल्पना देखिए, उसने एक अपनी कविता में भी बच्ची और दादी को एक घर में रखा, जो कि हमारे देश की परंपरा है ।

दुर्भाग्य से आज हम अपने आप को आधुनिक मानते हुए, इन दिवसों को मनाने लगे हैं। यदि आप किसी से बात करें, तो उनका कहना होता है हम रोज अपने माता पिता को आदर देते हैं, एक विशेष दिवस में देने से क्या अंतर पड़ता है ? यहां तक तो बात ठीक है, परंतु कालांतर में कहीं यह ना बन जाए, क्या आप मात्र एक  दिन में ही अपनी माता और पिता को स्नेह और आदर दी । इतिहास में ऐसी घटनाएं हुई है, धीरे धीरे धीरे किसी परंपरा में डाला गया, जो आप की परंपरा से मेल नहीं खाती थी । लेकिन कालांतर में आपने नई परंपराओं को स्वीकार कर लिया, जो शायद भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से आपके देश की परंपरा नहीं थी ।

इसका उदाहरण लोग चाय पीने से समझ सकते हैं, जब विदेशियों ने आपको चाय पिलाने की आदत डालनी थी, तो उन्होंने मुफ्त में आपको चाय पिलाई, इससे हुआ यह आप चाय पीने लगे, दूध को शुद्ध रूप में पीना आपने छोड़ दिया । इससे गोपालन की संस्कृति पर भी आघात हुआ, लोगों के लिए गाय पालनी महंगी हो गई । और आज आपको गौ रक्षा के आंदोलन चलाने पड़ते हैं । कल्पना करें यदि चाय की व्यवस्था हमारे देश में नहीं आई होती, तो आज कहीं पर भी गौ हत्या के विरोध में आपको आंदोलन करने की आवश्यकता नहीं थी । न हि चाय से होने वाले रोगों से आपको जूझना पड़ता ।

अब आइए इसके बाजारीकरण को समझते हैं, इंटरनेट के समाचारों के अनुसार इस फादर्स डे के ऊपर 20 बिलियन डॉलर का व्यापार होता है। आम भाषा में  समझे तो, दो हजार करोड़ डॉलर या डेढ़ लाख करोड़ रूपया । जो इतना बड़ा व्यापारिक प्रतिष्ठान बन गया है । अब इसके दूसरे स्वरूप को समझें, जिसके कारण में नहीं है लेख लिखा । एक पिता के 3 पुत्र हैं, दुर्भाग्यवश उनमें से एक पुत्र के पास धन की कमी है, वह अपने पिता के लिए इतने महंगे उपहार नहीं ले सकता जीतने कि दूसरे दो भाई ले सकते हैं । फादर्स डे पर दिए गए उपहारों को  यदि पिता देखने लगेगा, और उसने अगर उनकी कीमत पर नजर पड़ी, या यूं कहिए कि समाज और बाजार उन्हें सोचने पर विवश कर देगा कि मेरा अमुक  पुत्र मुझ से कम स्नेह करता है । यहीं पर मैं कहता हूं कि धन के आगे भावनाएं छोटी पड़ गई है । आप इस दिवस पर अपने माता-पिता, या विशेष रूप से पिता का सत्कार अवश्य करें परंतु पिता और पुत्र दोनों इस बात को समझे, क्यों उनके स्नेह के लिए धन का होना आवश्यक नहीं है, पुत्र को पिता के प्रति आदर्श दर्शाने के लिए किसी महंगे उपहार की आवश्यकता नहीं है, परंतु  हृदय में पिता के प्रति भावना का होना आवश्यक है ।

आज इंटरनेट पर देखें तो इस father’s day पर कैसे पैसा बनाएं के कई लेख मिल जाएंगे । कैसे मनाएं, किस स्थान पर पिताजी को भोजन करवाइए के हजारों विज्ञापन मिल जाएंगे । पर आप पिता को कैसे घर पर स्वादिष्ट और स्वास्थ्य वर्धक भोजन घर पर बनाएं, इसका एक भी लेख नहीं है । पिता आदर और स्नेह के लिए कैसे उपहार खरीदें यह तो बताने वाले लेख हैं । पर अपने हृदय से पिता के प्रति कैसे आभार व्यक्त करें या आपके किस आचारण से पिता प्रसन्न होंगे, इस पर चर्चा नहीं हैं । विद्यालय मे इनको मनाने से, शिक्षाविद यह समझते हैं कि बच्चों को संस्कार दे रहे हैं पर यह नहीं समझते कि बच्चा भी मात्र एक दिन के सत्कार के लिए तैयार किया जा रहा है ।

यदि हम धीरे-धीरे इन तथाकथित बाजारीकरण के दिनों से प्रभावित होने लगे, तो विश्वास कीजिए 1 दिन आपके घरों में इसके कारण दरार पड़नी शुरू हो जाएगी । आप जानते हैं कि वह सूक्तियां आपको समाज को पहले ही बहुत तरीकों से तोड़ चुकी है । कम से कम अब हम इसके प्रति की तीसरी करें । अपने पुराने अतीत और सांस्कृतिक मूल्यों को समझें । और उसी तरफ लौट चलें । एक विनम्र निवेदन।

किसी को आहत करने का कोई प्रयास नहीं है, केवल संबंधों में भावनाओं की प्रति दर्शाने के लिए लिखा गया है । धन्यवाद!

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