भाजपा जीत गयी, काँग्रेस हार गयी, महत्वपूर्ण प्रश्न है देश जीता या हारा ?

अभी अभी समाचार आया भारत अर्थव्यवस्था में चीन से पीछे हो गया है, साथ ही एक और समाचार आया कि किस देश में बेरोजगारी की दर 45 वर्षों में सर्वाधिक  6.1% हो गयी । विचार करने योग्य प्रश्न यह है कि भारतीय जनता पार्टी का प्रचंड बहुमत से जीतना लोकतंत्र के लिए कितना बेहतर और कितना घातक। शायद मेरे बहुत से मित्रों को यह लगेगा कि मैं भाजपा विरोधी हूं, मैं हर बार कहता हूं मैं न समर्थक हूँ न ही विरोधी हूँ, परंतु जानकारी की बात यह होनी चाहिए इस समय देश में ढाई हजार राजनीतिक दल है, जो चुनाव आयोग के पास पंजीकृत्त है और  जिनमें से बहुतों ने चुनाव लड़ा है कुछ क्षेत्रीय है कुछ प्रादेशिक  है और कुछ राष्ट्रीय हैं। आइए इस राजनीति शब्द का विश्लेषण करें राजनीतिक शब्द का अर्थ है राज्य और नीति। एक सत्ता जाती है दूसरी आती है परंतु नीतियों में क्या कहीं परिवर्तन आता है? शायद कुछ लोग यह कहेंगे जन धन योजना, उज्जवला योजना इत्यादि योजनाएं पिछली सरकार ने चलायी  हैं। आप यह समझे पहले नीतियां बनती है और नीतियों के क्रियान्वयन के लिए योजनाएं बनती है। अगर हमारे पास 2000 राजनीतिक दल हैं, तो क्या कहीं नीतियां बदलने की बात अभी तक हुई है।

अब यदि आप नीति को समझ ना चाहे, जैसे इस देश की व्यापार नीति। पिछले 5 वर्षों में प्रति वर्ष के आंकलन से यदि आप देखेंगे औसतन 63000 हजार करोड़ रुपए का व्यापार घाटा भारत में चल रहा है है अर्थात निर्यात आयात से वर्ष 63000 करोड़ रुपया कम है और यह संख्या पिछले 5 वर्षों में लगभग इतनी ही रही है। मेरे विचार से नीति यह होनी चाहिए कि हमारा निर्यात बढ़े औरा आयात घटे जिससे हमारा व्यापार घाटा कम हो। उसके लिए नई नीति बन सकती है। इस विचार को देख कर के की आयात किसका होता है, क्यों होता है और इसकी कितनी आवश्यकता है? इसके साथ ही हम अपने देश से कौन-कौन से संसाधनों का निर्यात कर सकती हैं, आज नहीं कर रही जैसे कि भारत कृषि प्रधान देश होने के बाद भी बहुत सा खाद्यान्न फल सब्जियां जो निर्यात हो सकती है नहीं हो रही है । एक और बात पर आपका ध्यान गाना चाहता हूं प्रतिवर्ष भारत में 220 लाख टन दालों की आवश्यकता है प्रतिवर्ष भारत में 140 लाख टन दाल का उत्पादन हो रहा है। हम हर वर्ष 70000 टन दालें बाहर से महंगी मंगा रहे हैं। अपने किसानों को जहां दाल का समर्थन मूल्य 50 और 60 रुपये से अधिक नहीं दिया जाता। वहीं पर आयातित दाल हम 90 रुपये किलो से खरीदते हैं। यह प्रक्रिया वर्षों से चल रही है, कभी प्याज पर राजनीति होगी सभी दालों पर होगी परंतु विचारणीय प्रश्न है के दाल के उत्पादन के क्षेत्र में कितना काम किया गया । यह मात्र दालों की समस्या तक सीमित नहीं है यह समस्या इसके लिए भी है किस सारी दालें डॉलर में खरीदते हैं । उसके लिए आपको और अधिक निर्यात करना पड़ता है। फलों का राजा आम होने के बाद भी देश में बहुत बड़ी जनसंख्या ऐसी है जिन्होंने अल्फांसो आम देखा ही नहीं, क्योंकि वह सब निर्यात होता है और यह करना हमारी मजबूरी है क्योंकि हमें डॉलर कमाना है।

<script async src=”//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”></script>
<ins class=”adsbygoogle”
style=”display:block; text-align:center;”
data-ad-layout=”in-article”
data-ad-format=”fluid”
data-ad-client=”ca-pub-1841555201014310″
data-ad-slot=”6301174304″></ins>
<script>
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
</script>

इसी प्रकार राजकोषीय की समृद्धि की बात करते हैं। नए वित्त मंत्री से अधिकांश बुद्धिजीवियों की अपेक्षा मात्र कितनी है, कर का बोझा कितना पड़ेगा या  कितना घटेगा ? अब आप इसको देखिए व्यापारी को जीएसटी उपभोक्ता से लेना है आगे जमा करना है,  इसी प्रकार निर्माता को व्यापारी से जीएसटी लेना है और उसे राजकीय कोष में जमा करना है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में आपको कहीं पर भी उपभोक्ता शिकायतकर्ता नहीं नजर आता । कि जीएसटी से क्या हुआ इसका कारण आप समझे व्यापारी को कर देने में परेशानी नहीं है क्योंकि उसने कर का पैसा उपभोक्ता से लेना है परंतु परेशानी यह है कि जब उसका पूरा व्यापार  औपचारिक अर्थव्यवस्था में आ जाएगा तो आयकर का दबाव पड़ेगा उससे वह भाग तक नहीं सकता  है। तो मूलतः इस सत्य से बचना चाहता है, धन की परेशानी नहीं है। तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग बात करते हैं वित्त मंत्रालय की और उनकी सोच यहां तक महदूद है कि मेरे ऊपर कर का कितना बोझ पड़ेगा, और मुझे कहां कहां से देश सुविधा दे सकता है परंतु मेरे ऊपर अधिक धन का बोझ ना पड़े। वातानुकूलित कमरों मेम्बईठ कर किसान की दुर्गति पर बात करेंगे । उसकी आत्महत्या पर चाय की चुस्की लेते हुए राजनीति पर बहस होगी । पर वही पर यदि किसान से महंगी दाल, सब्जी लेनी हो तो बुद्धिजीवी वर्ग के अनुसार उसे सरकार रियायत दे ।

अंत में नीतियों पर कोई प्रश्न नहीं है इसलिए आप देखिए एक सरकार आई दूसरी आई हो सकता है एक सरकार पिछले सरकारों के नेताओं पर अदालत में मुकद्दमे चलें,  या इस प्रकार की और काम करें परंतु अंत में हकीकत में धरातल मे बदलाव नहीं है। आप शिक्षा को ले ले इतने अधिक शिक्षित लोग हैं रोजगार उनको मिल नहीं रहा इसका अर्थ यह  हुआ शिक्षा की शिक्षा पद्धति रोजगार देने में सक्षम नहीं है। आवश्यकता है शिक्षा नीति पर काम किया जाए, परंतु काम यह किया जाता है अधिक और अधिक बच्चों को स्कूल में लाया जाए पढ़ाया जाए और शिक्षित बेरोजगारों की पंक्ति में खड़ा किया जाये । इस शिक्षा पद्दती में विध्यालय में संगोष्ठी होगी कि पर्यावरण को कैसे बचाया जाये और वहीं पर उस विध्यार्थी को शाबाशी मिलेगी जो प्लास्टिक या थर्मोकोल पर नयी पंक्ति लिख कर लाएगा । पेड़ों की सुरक्षा के लिए निबंध प्रतियोगिता होगी, परंतु वही विध्यालय अपनी पीछे की धरती पर पेड़ काट कर नई  इमारत बनवा लेंगे ।

शिक्षा से जुड़े होने के कारण युवाओं के आत्महत्या के समाचार मुझे बहुत व्यथित करते हैं ।  भारत में विश्व कि 17.8% जनसंख्या है परंतु आत्महत्याओं में भारत विश्व की 37% के आंकड़ों में आता है ।  और चौंकने वाली बात है कि 80% आत्महत्या पढे लिखों में है । 2018 में भारत में 2.4 लाख लोगों नें आत्महत्या कर ली जिसमें से  1.94 लाख पढे लिखे थे । आब आप बताने का कष्ट करें कि क्या इस पर शोध नहीं होनी चाहिए ? कृतिका त्रिपाठी का   पत्र याद आता है जो 2016 में सरकार को लिखा गया था, जिसमें लिखा गया था कोचिंग संस्थानों को बंद किया जाए। यह विध्यार्थियों को कुंठित करते हैं । अचंभे की बात है उस बालिका के 144 अंक आए थे जबकि 100 अंक पर आप उत्तीर्ण हो जाते हैं ।  परंतु प्रश्न यह है यही कोचिंग संस्थान राजनैतिक  दलों को धन देते हैं आप देखिए कोटा का शिक्षण नगरी इतना बड़ा व्यवसाय,  लेकिन दिल्ली के कोचिंग संस्थानों ने इतना धन दिया हुआ है कि कोटा में अभी पिछले 6 वर्षों में एक भी आईआईटी के लिए परीक्षा केंद्र नहीं रहा । अब इस दबाव का कारण क्या है दिल्ली की कोचिंग संस्थानों द्वारा शिक्षा मंत्रालय को दिया गया पैसा आवश्यकता है सभी नीतियों पर गहनता से विचारें और जो जो आवश्यक है उस पर काम हो ।

<script async src=”//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js”></script>
<ins class=”adsbygoogle”
style=”display:block; text-align:center;”
data-ad-layout=”in-article”
data-ad-format=”fluid”
data-ad-client=”ca-pub-1841555201014310″
data-ad-slot=”6301174304″></ins>
<script>
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
</script>

ऐसी हर नीति की समीक्षा हो, जो देश में 70 वर्षों में अपेक्षित बदलाव लाने में सक्षम साबित नहीं हुई है । अगले अंक में स्वास्थ्य और कृषि नीति पर चर्चा करेंगे । ऐसा नहीं है इस प्रकार की समस्याओं का समाधान बहुत कठिन है । आवश्यकता है तो नयी प्रकार से सोचने की ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *